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बहनोंसे

अपने देशमें बनाये गये कपड़ेका ही व्यवहार करेंगे तो यह निश्चय है कि हम कुछ ही दिनोंमें अपने देशकी सुरक्षाकी व्यवस्था कर लेंगे। इसीलिए मैं चरखेके प्रचारका उद्योग कर रहा हूँ। चरखा चलानेसे स्त्रियोंके शीलकी रक्षा होती है। इसके अतिरिक्त और कोई ऐसा धन्धा नहीं है जिसे करोड़ों बहनें घर बैठे-बैठे कर सकें और उसमें अपने अवकाश समयका उपयोग कर सकें। सूत कातनेमें कोई अधिक ज्ञान की भी जरूरत नहीं है। भारतके लोगोंको स्वावलम्बी बनना सीखना चाहिए। जब भारतमें वीर स्त्री-पुरुष पैदा होंगे तभी हम स्वावलम्बी हो सकेंगे। हमें सत्याग्रहकी वीरता दिखानी है। इसमें शस्त्रकी वीरताकी अपेक्षा अधिक वीरताकी आवश्यकता होती है। यदि हममें यह वीरता आ जाये तो हम स्वतन्त्र हो ही जायें। इससे आप बाहर जानेवाले करोड़ों रुपयोंको भारतमें ही बचा सकती हैं और अपनी बहनोंकी रक्षा भी कर सकती हैं।

मैंने आपसे जो प्रार्थना की है यदि वह आपको उचित लगती हो तो आप अपने देशके लिए निम्न कार्य करनेके लिए तैयार हो जायें:

१. आप गरीब लोगों में घूमें और जहाँ अन्न-वस्त्रका कष्ट देखें वहाँ उनमें चरखा दाखिल करें, उनकी भुखमरीको दूर करें और उन्हें स्वावलम्बी बनायें।

२. जहाँ-जहाँ गन्दगी हो, रोगग्रस्त स्त्री-बच्चे हों, जहाँ लोग हीन दशामें दिखाई दें वहाँ आप लोगोंको ऐसे साधन दें जिनसे वे संयममें रहकर स्वच्छ, स्वस्थ और शुद्ध जीवन बिता सकें और इस तरह आप उन्हें उनकी मौजूदा स्थितिका ठीक भान करायें।

३. जहाँ-जहाँ ज्ञान प्रचारकी आवश्यकता हो या लोगोंमें ज्ञान प्राप्तिकी अभिलाषा हो वहाँ आप उनको ज्ञान देनेके जरूरी साधन जुटायें और स्वयं भी उनमें ज्ञान प्रचारका प्रयत्न करें।

इन कार्योंको करनेके लिए पहले आत्मशुद्धि, आत्मविकास, सबके प्रति भगिनीभाव और विनयशीलताकी आवश्यकता है। यदि भगिनी समाज[१] इन कार्योंको करनेका निश्चय कर ले तो उसके सम्मुख कार्यका बहुत ही सुन्दर और फलदायी क्षेत्र पड़ा हुआ है। यह कार्यक्षेत्र इतना विस्तीर्ण है कि यदि उसमें ठोस कार्य किया जाये तो इससे अधिक बड़ी प्रवृत्ति उसके सम्मुख कोई दूसरी नहीं हो सकती और इससे आप "होमरूल" शब्दका उच्चारण किये बिना ही उसकी भारी सेवा कर सकती हैं। जब छापेखाने नहीं थे, भाषण देनेकी सुविधा भी कम थी, जब हम आजकी तरह २४ घंटे में हजार मीलके बजाय २४ मीलकी यात्रा भी मुश्किलसे कर सकते थे तब अपने विचारोंके प्रचारका एक ही मुख्य साधन माना जाता था -- यह साधन था अपना आचरण। कहा जाता है कि उसका असर बहुत अधिक होता था। आज तो हम वायुके वेगसे चलते हैं, व्याख्यान देते हैं, लेख लिखते हैं तिसपर भी हम जो कुछ सोचते हैं उसपर लोगोंको अमल कराने में असमर्थ रहते हैं। हर दिशासे लगभग निराशाका स्वर सुनाई देता है। मुझे तो लगता है कि पहलेकी

  1. बम्बईको एक समाजसेवी संस्था।