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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बहुत कम हैं। उन्होंने हमारी इस लड़ाईका रहस्य भली-भाँति समझ लिया है और संकटके समय में भी वे अपनी दृढ़ता और धीरज कायम रख सकते हैं।

फिर भी मुझे मद्रासमें निराशा कैसे हुई? मुझे इसके दो कारण दिखाई देते हैं। इसका एक कारण तो यह है कि मद्रासमें अंग्रेजी भाषाका प्रभाव इतना अधिक है कि अंग्रेजीके जानकार मद्रासी तमिलकी बहुत कम परवाह करते हैं। बंगालियोंको भी अंग्रेजीसे बहुत मोह है; किन्तु बंगालियोंने अपनी भाषाका त्याग नहीं किया है। उन्होंने बंगला भाषाका खूब विकास किया है और इस समय बंगला भाषामें जितना साहित्य है उतना भारतकी किसी अन्य भाषामें शायद ही है। उतना साहित्य किसी भाषामें है तो शायद उर्दूमें है। मद्रासियोंने तो तमिल भाषाको लगभग छोड़ ही दिया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि तमिल भाषाकी उन्नति बहुत कम हुई है, इतना ही नहीं, बल्कि अंग्रेजीके जानकार मद्रासियों और केवल तमिल जाननेवाले मद्रासियोंके बीच बड़ा अन्तर पड़ गया है। श्री राजगोपालाचार्य और उनके साथी इस अन्तरको मिटाने के लिए बहुत प्रयत्न कर रहे हैं; किन्तु उन्हें इस पुलके बनाने में देर तो लगेगी ही।

मुझे निराशाका दूसरा बड़ा कारण यह दिखाई देता है कि मद्रासियोंमें धर्मके लिए भक्तिभाव होनेपर भी धर्मान्धता इतनी अधिक आ गई है कि वहाँ धर्मका बाह्य रूप मात्र रह गया है और धर्मका लोप हो गया है। मद्रासमें अन्त्यजोंपर जितना अत्याचार किया जाता है उतना अन्यत्र शायद ही कहीं किया जाता हो। वहाँ ब्राह्मणों और अब्राह्मणोंमें जितना भेदभाव है, उतना दूसरी जगह शायद ही कहीं हो। फिर भी विभूति, चन्दन और कुंकुमका जितना उपयोग मद्रासमें किया जाता है उतना किसी दूसरी जगह शायद ही किया जाता होगा। मद्रासमें जितने देवमन्दिर हैं उतने शायद ही कहीं हों। मन्दिरोंपर धन व्यय करना मद्रास ही जानता है। इससे वहाँ एक ओर जहाँ विद्वानोंमें नास्तिकता आ गई है और जिसके फलस्वरूप वे निराशावादी हो गये हैं वहाँ दूसरी ओर आस्तिकोंमें केवल अन्धकार फैला हुआ है।

किन्तु जहाँ ऐसी स्थितियाँ होती हैं वहाँ अन्धकार दूर होते ही प्रकाश होने में भी देर नहीं लगती। ज्यों ही सामान्य वर्गके लोगोंको अपने अज्ञानकी प्रतीति होगी, वह एक क्षणमें अपने-आप नष्ट हो जायेगा।

इसीलिए मुझे निराशामें भी आशाकी किरणें छिटकती दिखाई देती हैं, क्योंकि मुझे कांग्रेस कार्यकर्त्ताओंने बताया है कि वहाँ लोग उनके प्रयत्न न करनेपर भी चरखा चलाने लगे हैं। जहाँ उन्होंने कोई प्रयत्न नहीं किया है वहाँ भी खादी तैयार होने लगी है और हजारों लोग खादीकी टोपियाँ भी पहनने लगे हैं। कांग्रेसके कार्यकर्त्ता स्वयं तो प्रायः खादी ही पहनते हैं। यदि मुझसे कोई यह पूछे कि अपने मद्रासके दौरेके अनुभवसे क्या निष्कर्ष निकालता हूँ तो मुझे कहना चाहिए कि मैंने मद्रासके अनुभवके बाद भी इस वर्ष में स्वराज्य पानेकी आशा नहीं छोड़ी है।

जो धर्मकी दृष्टिसे लड़ता है वह आशा छोड़ता ही नहीं। जिसका कार्य शुद्ध है और जिसके साधन भी शुद्ध हैं उसे मानना चाहिए कि सफलता अवश्य मिलेगी। निर्धारित समयपर न मिले तो वह इतना ही कहेगा; मेरे अनुमानमें कहीं भूल थी, किन्तु इस मार्ग से सफलता तो मिलेगी ही।