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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तरहसे सहायता पहुँचानेका ही था। वे यदि गाड़ियोंपर चढ़ते नहीं थे तो उन्हें घेर अवश्य लिया करते थे। उनका सबसे आगे चलनेका भी दुराग्रह रहता था, जिससे आने-जाने में बड़ी बाधा पड़ती थी। वे कदम मिलाकर चलना नहीं जानते थे। अगल-बगल दो-दोका जोड़ा बनाकर वे नहीं चलते थे। उनतक कोई हिदायत पहुँचा पाना बहुत कठिन था। अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि उनका अच्छी तरह संगठन किया जाये और उन्हें कुछ नियमोंका पालन करनेका निर्देश दिया जाये।

कुसियाँ ठीक नहीं लगतीं

अब आम तौरपर सार्वजनिक सभाओं में कुसियाँ शायद ही देखने में आती हों। सभाएँ बिलकुल खुले मैदानमें होती हैं। बीचमें एक छोटेसे मंचकी व्यवस्था अवश्य कर दी जाती है, जिसपर कभी चंदोबा होता है और कभी नहीं भी। चूंकि मैं खड़ा होकर नहीं बोल सकता, इसलिए आम तौरपर मेरे लिए एक कुर्सीका इन्तजाम कर दिया जाता है, और तब स्वभावतः मेरे अन्य साथियोंके लिए भी वैसा ही इन्तजाम कर दिया जाता है। ये कुर्सियाँ वहाँके परिवेशमें ठीक नहीं लगतीं और उसकी खूबसूरती कम कर देती हैं। मैं तो कहूँगा कि मेरे बैठकर बोलने के लिए एक सीधी-सादी पुराने ढँगकी वर्गाकार मेज ही की व्यवस्था कर दी जाये। बेशक हम अपने सादे और स्वाभाविक परिवेशके अनुकूल अपनी पुरानी कलाको पुनरुज्जीवित कर सकते हैं। अपनी यात्राके दौरान मुझे यह देखकर बड़ी खुशी हुई कि छादन और सजावट के लिए सर्वत्र खादीका ही उपयोग किया गया था।

विनाशका नैतिक औचित्य

बड़ोदादा (द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर, शान्तिनिकेतन) ने मेरा 'विनाशका नैतिक औचित्य'[१] शीर्षक लेख पढ़कर निम्नलिखित प्रतिक्रिया भेजी है। मेरे लिए यह बड़े हर्षकी बात है कि एक इतने समादृत और विद्वान् व्यक्तिने मेरी उस नैतिक स्थितिसे सहमति प्रकट की है जो मैंने ऐसे लोगोंके भी विरुद्ध जाकर अपनाई है जिनके मतको मैं मूल्यवान और सम्मानके योग्य मानता हूँ। पाठकोंको यह देखकर खुशी होगी कि बड़ोदादाके रूपमें हमारे बीच एक ऐसा ऋषि विद्यमान है जो अपने शान्त एकान्तमें भी हमारे राष्ट्रीय आन्दोलनके प्रति किसी पच्चीस वर्षके नौजवानकी तरह रुचि रखता है और बराबर उसीके विषयमें सोचता रहता है तथा उसकी सफलताकी कामना करता है। यह है वह पत्र :

एक सौदागर था, जो एकाएक दिवालिया हो गया और गरीबीके चंगुलमें बुरी तरह फँस गया। उसकी पत्नीने उस समय खाट पकड़ रखी थी; वह गठियासे पीड़ित थी। एक अत्तार था। वह पेटेंट दवाएं बेचा करता था और अपने ग्राहकोंसे बराबर नकद अदायगी चाहता था। एक डाक्टर मित्र उस महिलाको देखने आया, और उसी समय उसकी लड़की ससुरालसे अपनी बीमार माँको देखने आई। वह एक दस रुपयेका नोट भी लायी थी जिससे वह पेटेंट दवा खरीदी जा

  1. देखिए “विनाशका नैतिक औचित्य", १-९-१९२१।