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सके और उसकी माँकी तकलीफ जल्दी दूर हो जाये। उसने नोट डाक्टरको दे दिया, और डाक्टरसे पासकी अत्तारकी दुकानसे दवा मंगवा कर दे देने को कहकर खुद चली गई। डाक्टर ने कहा कि इसमें सन्देह नहीं कि दवासे उसे तत्काल राहत मिलेगी, लेकिन साथ ही उसके स्वास्थ्यपर उसका इतना बुरा असर होगा कि वह सदाके लिए अपंग बनी रहेगी। डाक्टरने आगे कहा कि मैं एक विद्युत्-चिकित्सकको जानता हूँ जो पास ही रहता है और गठियाको विद्युच्चिकित्सासे ठीक कर सकता है। उसकी रोजकी फीस १० रुपये है। एक महीने में वह रोगको जड़मूलसे उखाड़ देगा और महिलाके सामान्य स्वास्थ्यको भी कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा।

लेकिन रोगीका आग्रह था कि उसे तत्काल आराम चाहिए, और इसलिए उसने डाक्टरसे बार-बार वह नोट देने को कहा ताकि वह तुरन्त दवा मंगवा सके। लेकिन डाक्टरने भी बार-बार यही कहा कि उसकी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं करती कि वह उस उद्देश्यसे वह नोट उसे दे दे और वह ऐसा करना पाप समझता है। लेकिन महिला गिड़गिड़ाने लगी और नोट देने के लिए मिन्नतें करने लगी। इसपर डाक्टरने अपनी जेबसे दियासलाई निकाली और उस नोटको जलाकर राख कर दिया। उसने महिलासे कहा कि तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं तुरन्त अपने खर्चपर उस विद्युच्चिकित्सकको लाने जा रहा हूँ, और यह पैसा तुम्हारे पति अपनी आर्थिक स्थिति सुधरते ही मुझे वापस दे देंगे। इस तरह जब क्षण-भर में उसकी तात्कालिक राहत पानेकी आशा चली गई तो उसने डाक्टरसे कहा, "जैसा चाहें, करें।" इसपर डाक्टर विद्युच्चिकित्सकको ले आया, जिसने उसे विश्वास दिलाया कि अगर वह इलाज करने दे तो महीने भरके अन्दर उसे स्थायी तौरपर ठीक कर दिया जायेगा। डाक्टरने सबके प्रति अपना वादा पूरा किया।

तब उस नोटका जलाना पुण्य था अथवा पाप ?

उपर्युक्त दृष्टान्त बिलकुल वैसा ही है जैसा श्री गांधी द्वारा विदेशी कपड़ोंका जलाया जाना। श्री गांधी गरीबोंको वह तात्कालिक राहत देने को तैयार नहीं हैं, जो उनके बीच विदेशी कपड़े बांटकर उन्हें दी जा सकती है। वे सदाके लिए दीन-हीन न बन जायें, इसलिए उन्होंने स्वयं उनके हाथों तैयार किये गये कपड़े देनेकी व्यवस्था करके उन्हें सदाके लिए सुखी बनानेका वादा किया है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ६-१०-१९२१