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११०. हिन्दू धर्म

अपनी मद्रास यात्रा के दौरान अस्पृश्यताकी समस्यापर बोलते हुए मैंने जितने जोरदार ढंगसे अपनेको सनातनी हिन्दू बताया है, उतने जोरदार ढंगसे ऐसा कोई दावा पहले कभी नहीं किया था। फिर भी हिन्दू धर्मके नामपर ऐसे बहुतसे काम किये जाते हैं, जो मुझे मंजूर नहीं हैं। अगर मैं सचमुच वैसा नहीं हूँ तो मुझे सनातनी हिन्दू अथवा अन्य किसी ढंगका हिन्दू कहलाने की कोई ख्वाहिश नहीं है और निश्चय ही मेरी ऐसी कोई ख्वाहिश तो हरगिज नहीं है कि एक महान् धर्मकी आड़ लेकर मैं कोई सुधार या बुराई दाखिल करूँ।

इसलिए यह आवश्यक है कि सनातन धर्मका जो अर्थ मैं लगाता हूँ उसे एक बार अन्तिम रूपसे स्पष्ट कर दूं। सनातन शब्दका प्रयोग मैं उसके स्वाभाविक और प्रचलित अर्थ में ही कर रहा हूँ।

मैं अपनेको सनातनी हिन्दू इसलिए कहता हूँ कि :

१. मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और हिन्दू धर्मग्रंथोंके नामसे प्रचलित सारे साहित्य में विश्वास रखता हूँ, और इसलिए अवतारों और पुनर्जन्ममें भी।

२. मैं वर्णाश्रम धर्मके उस रूपमें विश्वास रखता हूँ, जो मेरे विचारसे विशुद्ध वैदिक है, लेकिन उसके आजकलके लोक-प्रचलित और स्थूल रूपमें मेरा विश्वास नहीं है।

३. मैं गो-रक्षामें उसके लोक-प्रचलित रूपसे कहीं अधिक व्यापक रूपमें विश्वास करता हूँ।

४. मैं मूर्तिपूजामें अविश्वास नहीं करता।

पाठक इस बातकी ओर ध्यान देंगे कि वेदोंके सन्दर्भमें मैंने जानबूझकर अपौरुषेय या ईश्वरीय विशेषणका प्रयोग नहीं किया है। कारण, मैं ऐसा नहीं मानता कि सिर्फ वेद ही अपौरुषेय हैं -- ईश्वरीय हैं। 'बाइबिल' 'कुरान' तथा 'जेन्द अवेस्ता' के पीछे भी मैं उतनी ही ईश्वर-प्रेरणा मानता हूँ। इसके अलावा, हिन्दू धर्मग्रन्थोंमें मेरा विश्वास मुझे यह नहीं कहता कि मैं उनके एक-एक शब्द, एक-एक पंक्तिको ईश्वर प्रेरित मानूं। न मैं ऐसा ही कोई दावा करता हूँ कि मैंने इन अद्भुत ग्रन्थोंका मूलरूपमें स्वयं अध्ययन किया है लेकिन इतना दावा तो अवश्य करता हूँ कि तत्त्वतः वे जो कुछ सिखाते हैं उसके सत्यको मैं जानता हूँ और उसका अनुभव करता हूँ। उनकी चाहे जितनी पाण्डित्यपूर्ण व्याख्या की जाये, अगर वह मेरे विवेक और नैतिक बुद्धिको नहीं रुचती तो मैं ऐसी किसी भी व्याख्याका बन्धन स्वीकार करनेको तैयार नहीं हूँ। वर्तमान शंकराचार्यों और शास्त्रियोंके हिन्दू धर्मग्रन्थोंकी सही व्याख्या देनेके किसी भी दावेको (अगर ऐसा दावा किया जाता है तो) मैं जोरदार शब्दोंमें अस्वीकार करता हूँ। इसके विपरीत, मैं ऐसा मानता हूँ कि इन ग्रन्थोंका हमारा वर्तमान ज्ञान बहुत ही अव्यवस्थित हालत में है। हिन्दुओंके इस सूत्र में मेरा पूर्ण विश्वास है कि जिसने अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्यको