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हिन्दू धर्म

सिद्ध नहीं कर लिया, जिसने धन-सम्पत्तिकी प्राप्तिकी आकांक्षा या उसे रखनेकी लालसाका त्याग नहीं कर दिया, उसे वास्तवमें शास्त्रोंके रहस्यका ज्ञान नहीं होता। मैं गुरुमें विश्वास करता हूँ, किन्तु इस युगमें तो लाखों-करोड़ों लोगोंको बिना गुरुके ही रहना होगा, क्योंकि पूर्ण पवित्रता और पूर्ण ज्ञानका संयोग किसी भी एक व्यक्तिमें मिल पाना आजकल बहुत कठिन हो गया है। किन्तु, इसीसे किसीको ऐसा न मान बैठना चाहिए कि वह तो अपने धर्मके सत्यको कभी जान ही नहीं सकता। कारण, अन्य धर्मोकी तरह ही हिन्दू धर्मके भी बुनियादी सिद्धान्त सनातन हैं, और उन्हें आसानीसे समझा जा सकता है। हर हिन्दू ईश्वर और उसकी अद्वितीयतामें विश्वास करता है, पुनर्जन्म और मोक्षको मानता है। लेकिन जिस चीजने हिन्दू धर्मको अन्य धर्मोसे अलग करके दिखाया वह वर्णाश्रम भी नहीं, गो-रक्षा थी।

मेरे विचारसे, वर्णाश्रम मानव प्रकृतिकी एक सहज विशेषता है, और हिन्दू धर्मने सिर्फ इतना ही किया है कि उसे शास्त्रका रूप दे दिया है। वर्णाश्रमका सम्बन्ध निश्चय ही जन्मसे है। कोई व्यक्ति अपनी इच्छासे अपना वर्ण बदल नहीं सकता। अपने वर्णके बन्धनोंको न मानना आनुवंशिकताके नियमको अमान्य करना है। लेकिन यह जो हिन्दू समाजको असंख्य जातियोंमें विभक्त कर दिया गया है, उसे इस सिद्धान्तके साथ बिना किसी कारणके मनमानी करना माना जायेगा। चार विभाग पर्याप्त हैं।

मैं नहीं मानता कि दूसरी जातिवालोंके साथ खाने-पीने या विवाह सम्बन्ध करनेसे किसीका जन्मतः प्राप्त दर्जा छिन ही जाता है। चार वर्ण लोगोंके व्यवसायोंको निर्धारित करते हैं, वे सामाजिक समागमको प्रतिबन्धित या नियमित नहीं करते। वे लोगोंके कर्त्तव्य निर्धारित करते हैं, किसीको कोई विशेष अधिकार प्रदान नहीं करते। मैं मानता हूँ कि किसीका अपने-आपको ऊँचा मानने और किसी दूसरेको नीचा माननेकी धृष्टता करना हिन्दुत्वकी सहज प्रकृतिके विरुद्ध है। सभीका जन्म ईश्वरकी सृष्टिकी सेवा करनेके लिए हुआ है -- ब्राह्मणको यह सेवा अपने ज्ञानसे करनी है, क्षत्रियको अपनी संरक्षणकी शक्तिसे, वैश्यको अपनी व्यापारिक क्षमतासे और शूद्रको शारीरिक श्रमसे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि -- उदाहरणके तौरपर -- कोई ब्राह्मण शारीरिक श्रमसे या अपनी अथवा दूसरोंकी रक्षाके कर्त्तव्यसे मुक्त हो गया। जन्मसे ब्राह्मण मुख्यतः ज्ञानी और विद्यावान् पुरुष है और अपनी वंश-परम्परा तथा प्रशिक्षणकी दृष्टिसे वह दूसरोंको ज्ञानका प्रकाश देनेके लिए सबसे उपयुक्त है। इसी तरह किसी शूद्रको, वह जो और जितना ज्ञान प्राप्त करना चाहे, उससे रोकनेवाली कोई चीज नहीं है। इतना अवश्य है कि वह शारीरिक श्रमके द्वारा ही सबसे अच्छी सेवा करेगा, और उसे अन्य वर्णोंके लोगोंके सेवोपयोगी विशिष्ट गुणोंके प्रति ईर्ष्याका भाव रखने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अगर कोई ब्राह्मण अपने ज्ञानके बलपर अपनेको दूसरोंसे श्रेष्ठ मानता है तो यह उसके पतनका कारण बनता है, और ऐसा मानना चाहिए कि जो ऐसी श्रेष्ठताका दावा करता है, उसे सचमुच कोई ज्ञान नहीं है। और यही बात अपने विशिष्ट गुणोंके बलपर अपनेको श्रेष्ठ माननेवाले अन्य वर्णोंके लोगोंके साथ भी लागू होती है। वर्णाश्रमका मतलब है, आत्मसंयम, शक्तिका रक्षण और उसका सुव्यवस्थित उपयोग।

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