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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस तरह, विभिन्न वर्णोंके लोगोंके आपसमें खान-पान और शादी-विवाहका सम्बन्ध रखनेसे यद्यपि वर्णाश्रम धर्ममें कोई बाधा नहीं पहुँचती, तथापि हिन्दू धर्म ऐसे सम्बन्धोंका तीव्र विरोध करता है। हिन्दू धर्म आत्मसंयममें पराकाष्ठातक पहुँच गया है। इस धर्मका मूल भाव निस्सन्देह् आत्माकी मुक्ति के लिए ऐहिक सुखका त्याग है। अपने पुत्रके भी साथ भोजन करना किसी हिन्दूके कर्त्तव्यका कोई अंग नहीं है। और पत्नीका चुनाव एक खास वर्गतक सीमित रखकर वह ऐसा आत्मसंयम बरतता है जो शायद ही कहीं देखनेको मिले। हिन्दू धर्म मोक्ष-प्राप्तिके लिए विवाहित जीवनको आवश्यक नहीं मानता। जन्मकी तरह विवाह भी मनुष्यके पतनकी निशानी है। मोक्ष जन्मसे, और इसलिए मृत्युसे भी छुटकारा है। विभिन्न वर्णोंके पारस्परिक खान-पान और शादी-विवाहके सम्बन्धोंपर रोक लगाना तीव्र आत्मिक विकासके लिए आवश्यक है। लेकिन इस पाबन्दीका पालन वर्णकी कसौटी नहीं है। अगर कोई ब्राह्मण ज्ञानके बलपर सृष्टिकी सेवाके अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं हो गया हो तो किसी शूद्र भाईके साथ भोजन करके भी वह ब्राह्मण ही रहेगा। ऊपर मैंने जो कुछ कहा है, उससे निष्कर्ष यही निकलता है कि भोजन और विवाह विषयक संयम जातीय श्रेष्ठताकी किसी भावनापर आधारित नहीं है। अगर कोई हिन्दू अपनेको श्रेष्ठ मानकर किसी अन्य व्यक्ति के साथ भोजन करनेसे इनकार करता है तो इसका मतलब है, वह अपने धर्मको गलत रूपमें पेश कर रहा है।

मगर दुर्भाग्यसे आज तो हिन्दू धर्म खान-पान सम्बन्धी विधि-निषेधोंका ही धर्म बनकर रह गया जाना पड़ता है। एक बार एक मुसलमान भाईके घर मैंने एक टोस्ट खा लिया। यह देखकर वहाँ उपस्थित एक धर्मनिष्ठ हिन्दू भाई हैरान रह गये। मुझे जब उन्होंने एक मुसलमान भाई द्वारा दिये प्यालेमें दूध डालते देखा तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ, लेकिन मुसलमानके हाथका टोस्ट खाते देखकर तो उनकी व्यथाका अन्त न रहा। अगर हिन्दू धर्म क्या और किसके साथ खाना चाहिए, इसीसे सम्बन्धित नियमों के विस्तृत जालमें फँस गया तो वह अपना मूलतत्त्व खो बैठेगा। मादक पेयों और द्रव्यों के सेवनसे तथा तरह-तरह के खाद्यों, विशेषकर मांस आदिसे परहेज रखना आत्माके विकास में बड़ा सहायक है, लेकिन यह अपने आपमें कोई सिद्धि नहीं है। मांसाहार करनेवाले और सबके साथ खानेपीनेवाले किन्तु ईश्वरसे डरकर चलनेवाले बहुतसे लोग उस व्यक्तिकी अपेक्षा मुक्तिके अधिक निकट हैं जो मांसाहार तथा अन्य बहुत-सी बातोंसे तो धार्मिक निष्ठाके साथ परहेज रखता है किन्तु अपने हर काममें, आचरणमें ईश्वरकी अवहेलना करता है।

लेकिन हिन्दू धर्मका मूलतत्त्व गोरक्षा है। मेरे लिए गोरक्षाका विचार मानवता के विकास क्रममें एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कदम है। यह मनुष्यको अपनी जातीय परिधिसे बाहर ले जाता है। गायमें मैं समस्त मानवेतर प्राणियोंका दर्शन करता हूँ। मनुष्यसे यह अपेक्षा की जाती है कि गायके माध्यमसे वह समस्त प्राणी जगत् के साथ तादात्म्यका अनुभव करे। और गायको ही पूजाके लिए क्यों चुना गया, यह मैं स्पष्ट देख सकता हूँ। भारतमें गाय मनुष्यकी सबसे अच्छी साथी थी। वह समृद्धिका स्रोत थी। वह दूध ही नहीं देती थी, उसीके बलपर खेतीका काम भी चलता था। गाय करुणाका