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११२. ३० सितम्बर

अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस कमेटीने पूर्ण वाद-विवाद के बाद विदेशी वस्त्रोंके पूर्ण बहिष्कारकी अन्तिम तिथि ३० सितम्बर नियत की थी। बहस इस बातपर थी कि तारीख ३० सितम्बर रखी जाये, या ३० अक्तूबर! जो लोग ३० सितम्बरके पक्षमें थे, उनका कथन था कि यदि हम ३० अक्तूबरतक बहिष्कारका कार्य पूरा कर सकते हैं, तो हम उसे ३० सितम्बरतक भी पूरा कर सकेंगे। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि जो प्रस्ताव हमने पास किया था उसे पूरा करनेमें हम सफल नहीं हो सके। हाँ, निश्चय ही बहुत काम हुआ है। खादी बहुत लोकप्रिय हुई है और उसका चलन भी बहुत बढ़ा है। कितने ही स्थानोंमें उसकी किस्म भी सुधरी है। निश्चय ही अब अधिक चरखे चल रहे हैं, कई नये करघे तैयार किये गये हैं। जो उन्नति इस समयतक हुई है, उसे सन्तोषजनक अवश्य कह सकते हैं। पर जब हम यह खयाल करते हैं कि हम लोग इसे युद्धके पैमानेपर चला रहे हैं तब हमें यह प्रगति बिलकुल कम लगती है।

आखिर इस आन्दोलनकी सफलता उपभोक्ताओंपर ही निर्भर है। बाहरसे मँगानेवालोंने कुछ सहायता अवश्य की है, पर उपभोक्ताओंने केवल आंशिक बहिष्कारसे सन्तोष कर लिया है। प्रायः सब लोगोंने विदेशी टोपियाँ पहनना छोड़ दिया है; कुछने वास्केटें छोड़ दी हैं, पर धोतियोंका बहिष्कार तो बहुत ही कम लोगोंने किया है। उपभोक्ताओंने माल तैयार करनेवालोंकी कोई खास सहायता नहीं की है। सूत कातनेका काम कुछ गरीबोंने ही उठाया है। उपभोक्ताओंने पूर्ण परिवर्तनकी आवश्यकता अनुभव नहीं की है। उपभोक्ता अभी पूरी तौरपर महसूस नहीं कर पाये हैं कि स्वराज्य प्राप्तिके बाद हमें किस प्रकार एक नये जीवनके तौर-तरीके अपनाने पड़ेंगे। टाल-मटोल करनेसे हमें सफलता नहीं मिलेगी। हमें इस मामलेमें सफलता पानेके लिए पूर्ण परिवर्तन करनेकी आवश्यकता है।

साथ ही बंगाल तथा मद्रासमें भ्रमण करते समय मैंने यह भी देखा कि लोग इसके लिए इच्छुक हैं। अधिकांश लोग आशान्वित थे और उनका यही कहना था कि थोड़ा और समय मिलनेपर वे पूरी तौरपर संगठन खड़ा कर लेंगे और बिना किसी कठिनाईके खादी तैयार करने लगेंगे। स्वदेशीके विषयमें स्त्रियोंको लेकर ज्यादा कठिनाई पड़ रही है। वे इस परिवर्तनको पुरुषोंकी भाँति खुशीसे स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं हैं। पर इन कठिनाइयोंको पार करनेसे ही हममें साहस, आशा, दृढ़ता और साथ ही भारतकी वास्तविक दशाका ज्ञान होगा। स्वदेशीके माने हैं वास्तवमें भारतका औद्योगिक पुनरुत्थान तथा फलस्वरूप बढ़ती हुई घोर दरिद्रताका विनाश। जब हम राज्यकी सहायता के बिना अपनी वस्त्रकी आवश्यकताएँ पूरी कर लेंगे और भारतकी गरीबीकी उस समस्याको हल कर लेंगे, जिसे हम लोग असाध्य समझते थे, तब