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११३. स्वदेशीमें विघ्न

ऊपर दिया गया पत्र[१] एक व्यापारी मित्रने लिखा है। उन्होंने आजतक जीभर कर विदेशी कपड़ेका व्यापार किया है, फिर भी वे यह समझ सके हैं कि देशका हित किस बातमें है और चरखे और खादीका महत्त्व उनकी समझमें आ गया है। इस मित्रने जो भय बताये हैं वे हमारे लिए विचारणीय हैं।

मिलोंके कपड़ेको उत्तेजन देना हमारी भूल है, इतना ही नहीं, बल्कि उसको खरीदने के लिए दौड़ना भी भूल है। मिलोंका कपड़ा तो खपता ही रहेगा। यदि हम मिलवालोंको लालचमें डालेंगे तो मालकी किस्म अवश्य बिगड़ेगी और जो लोग इस कपड़े का व्यापार मुनाफेके लिए ही करते हैं उनको कपड़ेका दाम बढ़ानेका लालच हो जायेगा। जब देश के लोग स्वयं देशहितका विचार करें तभी व्यापारियोंसे भी यह आशा की जा सकती है कि वे देशहितकी ही खातिर व्यापार करें। मैं खादी पहननेकी दिक्कत उठा लूँ -- यदि इसे दिक्कत कहूँ तो -- और उसका दाम अधिक हो तो अधिक दाम भी दे दूं, यह ज्यादा आसान है या मिलमालिकोंके लिए अपना करोड़ोंका मुनाफा छोड़ना ज्यादा आसान है? यदि हम मालिकोंसे कोई बहुत बड़ी आशा करें तो यह मूर्खता ही समझी जायेगी। हमें यही मान कर यह आन्दोलन चलाना चाहिए कि ये लोग सबसे पहले नहीं बल्कि सबसे पीछे जागेंगे। इसमें उनका दोष निकालना मानव-स्वभावका दोष निकालनेके बराबर है। यदि उनके स्थानपर हम हों तो निश्चय ही हम भी ऐसा ही करें। इसलिए हममें से जो लोग स्वदेशीका व्यवहार धर्मके रूपमें करते हैं उनको मिलोंका बना कपड़ा नहीं पहनना चाहिए।

इसका अर्थ यह है कि हमारे हिस्सेमें स्वभावतः हाथके कते सूतकी और हाथकी बुनी खादी ही रह जाती है। "खादी” शब्दमें कोई चमत्कार नहीं है, उसके गुणमें चमत्कार है। खादीके रूपरंगमें चमत्कार नहीं है। हाथके कते सूतका और हाथका बुना हुआ कपड़ा यदि खादी जैसा नहीं बल्कि मलमल जैसा लगता होता तो हम उसे पसन्द करते। हाथकी कती और हाथकी बुनी खादीका सार्वजनिक प्रचार करनेसे ही देशकी दरिद्रताका नाश होगा और उसके द्वारा ही स्वराज्य मिलना सम्भव है, यह बात हमें स्वर्णाक्षरोंमें लिखकर रख लेनी चाहिये। कहनेका मतलब यह है कि जापानसे आई हुई अथवा हमारी मिलोंमें बनी हुई खादी, खादी नहीं, बल्कि खादी जैसा दिखनेवाला एक कपड़ा है। उस कपड़ेका तो त्याग ही किया जाना चाहिए।

खादी लेनेके लिए नडियादके लोगोंको न अहमदाबाद जाना चाहिए और न बम्बई। यह खादी तो उन्हें नडियाद में ही बनानी चाहिए क्योंकि यह प्रयत्न है ही

  1. पत्र यहां नहीं दिया गया है। इसमें उस खतरेकी ओर ध्यान खींचा गया था जो खादीको तुलना कारखानों के कपड़ेके प्रति लोगोंकी बढ़ती हुई रुचिके कारण स्वदेशी आन्दोलनके लिए पैदा हो गया था।