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स्वदेशीमें विघ्न

इसलिए कि नडियादके लोगोंका उतना पैसा नडियादमें ही रहे —— अथवा उन्हें अपने जिलेमें काते हुए सूतकी और वहाँ बुनी हुई खादीका व्यवहार करना चाहिए। इसमें खादी महँगी नहीं होगी। घरकी बनी रोटी बाजारकी बनी रोटीसे सदा सस्ती ही होती है। यदि मैं अपने पड़ौसी बुनकरको दो आने दूं तो यह मांचेस्टर भेजे गये एक पैसेसे ज्यादा सस्ता है, क्योंकि अपने पड़ोसी बुनकरको दिये गये दो आनेमें से मेरे पास कुछ वापस आ जायेगा। किन्तु यदि मैं अपने पड़ोसी बुनकरको भूखों मारकर मांचेस्टरके बुनकर या बम्बईके बुनकरको रोटी दूँ तो इससे मेरा पड़ोसी बुनकर मेरे लिए भार-रूप हो जायेगा और मुझे उसके लिए सदावर्तकी व्यवस्था करनी पड़ेगी। हम भारतमें इस तरहके सदावर्तकी व्यवस्था करके अपने मनको धोखा देते हैं कि हम पुण्य कमा रहे हैं। हमें सदावर्तकी व्यवस्था करनेकी जरूरत पड़ती है, इस स्थितिके मूलमें हमारा जो पाप है वह हमें दिखाई नहीं देता —— या ऐसा कहें कि उसे हम देखना नहीं चाहते। यदि कोई हमारी सम्पत्ति छीन कर हमारे लिए सदावर्त जारी कर दे तो हमें कैसा लगेगा ? अथवा दीर्घकालके अभ्याससे हमें इस तरह भीख माँगनेकी आदत पड़ जाये तो जो लोग हमें देखेंगे वे हमारे बारेमें क्या सोचेंगे ? फिर भी हम अपना कताई और बुनाईका प्राचीन धन्धा छोड़कर भिक्षुक ही बन गये हैं, और यदि हम चेतेंगे नहीं तो हमारा यह भिक्षुकपन और भी बढ़ जायेगा और अन्तमें 'जो लोग यज्ञ किये बिना खाते हैं वे चोर हैं' इस नियमसे हम चोर ठहरेंगे।

मुझे बंगालके मिथ्याभिमानका भय नहीं है। यदि गुजरात अकेला ही स्वदेशी-व्रतका पालन करना सीख गया तो बंगाल उसका अनुकरण अवश्य करेगा। मद्रासके लोगोंको तरह-तरहके रंगोंका बहुत मोह है; उनके इस मोहको भंग करना मुझे अवश्य ही कठिन लगता है; किन्तु आजकी धर्म-जागृति के समयमें जो आगे जाता हुआ दिखता है वह पिछड़ने लगे और जो पिछड़ता दिखता है वह आगे निकल जाये तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। बंगालमें भी उद्योग तो किया ही जा रहा है।

इस पत्र लेखकने बंगालके धरनेके सम्बन्धमें ठीक जानकारी न होनेसे बंगालियोंके प्रति अन्याय किया है। मारवाड़ियोंकी दूकानोंके सामने धरना देनेवाले मारवाड़ी और खिलाफत समिति के स्वयंसेवक थे। इसमें बंगालियोंका हाथ था ही नहीं। इस धरनेका आरम्भ शुद्ध हेतुसे किया गया था और वह अन्ततक सभ्यतासे ही चलाया गया था। इसमें सेठ जमनालाल बजाज-जैसे मारवाड़ी सज्जनोंने प्रमुख भाग लिया था।

मुझे जो भय है वह केवल स्त्रियोंके सम्बन्धमें है। हमने स्त्रियोंको ऐसी महत्वपूर्ण बातोंसे भी बेजानकार ही रखा है। वे ऐसे कामोंमें अभी-अभी रस लेने लगी हैं और जबतक विदेशी कपड़ेपर से उनका मोह नहीं जायेगा तबतक स्वदेशीका कार्यक्रम पूरा न होगा। सौभाग्यसे स्त्रियोंकी जागृति अचानक इतनी बढ़ गई है कि मैं उनमें बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन होते देख रहा हूँ। किन्तु पुरुषोंको अपनी उपेक्षाका बहुत बड़ा प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा। जब पुरुषोंमें विदेशी कपड़ा ढूंढे नहीं मिलेगा तब स्त्रियोंको उसका त्याग करनेमें तनिक भी देर नहीं लगेगी। अभी तो पुरुषोंको भी सजने-धजनेकी जरूरत रहती है। उनका बारीक कपड़ेका मोह अभीतक नहीं गया है। उन्हें अभी धोतियाँ तो मिलकी ही चाहिए। उनको खादीका बोझा उठाने-