विवरण भेजा है। इसे पढ़कर मेरा हृदय रो उठता है और मुझे लज्जा लगती है। इस पुण्य क्षेत्रमें पापकर्मोकी सीमा नहीं।
इस विवरणको जिसने भेजा है उसने अपना नाम-धाम भी दिया है और उसको छापनेसे मना भी नहीं किया है, किन्तु उसका नाम-धाम देकर इसे छापनेकी मेरी हिम्मत नहीं होती। उसकी कुछ बातें तो छापने योग्य ही नहीं हैं। इसमें वहाँ रहनेवाले साधुओंकी स्वेच्छाचारिताका, उनके वैभवका और उनकी व्यभिचार-लीलाओंका यथार्थ चित्र दिया गया है। उसमें यह भी बताया गया है कि इससे उन्हें कैसे-कैसे रोग हो जाते हैं। और यह भी बताया है कि गरीब यात्री कैसे लुटते हैं, तथा साधुवेश में अनेक दम्भी लोग कैसी मौज करते हैं। इस गन्दगीको कौन दूर कर सकता है? पत्र में कहा गया है कि इस सम्बन्धमें मुझे और शंकराचार्यको प्रयत्न करना चाहिए। मैं जानता हूँ कि मुझमें अभी तो इस गन्दगीको दूर करनेकी शक्ति नहीं है। मुझमें तो केवल इस वर्णनका सार छाप देनेकी शक्ति है। जो लोग वहाँ रहते हैं उनमें से कोई इसे देखकर कुछ कर सके तो अवश्य करना चाहिए। हिन्दुओंके तीर्थस्थानोंकी गन्दगी इतनी भयंकर है कि उसे अधिकांश हिन्दुओंके मनोंको बदले बिना दूर नहीं किया जा सकता। इस समय जो यह धर्मयज्ञ चल रहा है, इसमें हिन्दुओंका मन कितना बदलता है, इसीपर इन पाप-क्षेत्रोंको पुनः पुण्यक्षेत्र बनाना निर्भर है। इन स्थानोंकी शुद्धि करना हिन्दू धर्मका पुनरुद्धार करनेके समान है। इस कार्यको करनेके लिए बहुत बड़ी तपस्याकी आवश्यकता है। उसके लिए स्थानीय लोगोंका प्रभाव भी चाहिए।
नवजीवन, ६-१०-१९२१
११५. पत्र : गंगाधरराव देशपाण्डेको
[८ अक्तूबर, १९२१ के पूर्व ][१]
मैं सुन रहा हूँ कि जेल-महलमें रहनेका सौभाग्य पानेकी आपकी बारी आ गई है। आपके इस सौभाग्यसे मुझे ईर्ष्या होती है। आप जेल जानेवाले पीछे रहनेवालोंका बोझ बढ़ाते जाते हैं। किन्तु हम अपनी समस्त चिन्ताएँ ईश्वरको सौंप देंगे। आप जेलमें चरखा तो अलबत्ता माँग ही लेंगे। बाकी, इस बरसके खत्म होने के बाद हम आपको इस महलमें रहनेका सुख न उठाने देंगे।
नवजीवन, २० – १० - १९२१