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पचास मन सूत था और मैं उसे बाईस रुपये मनके भावसे बेच रहा था और प्रति मन चार रुपया लाभ उठा रहा था। आज मुझे खबर मिली कि अमेरिकामें फसल अच्छी नहीं हुई है और मैंने बाईसकी जगह उसका भाव अड़तीस रुपया मन कर दिया। ये सोलह रुपये ज्यादा लेनेका भला मुझे क्या अधिकार है ? इस उलटे अर्थशास्त्रसे, वणिकको शोभा न देनेवाली व्यापारकी इस रीतिमें, सारी दुनिया तकलीफ पा रही है। जो शास्त्र यह कहे कि अमेरिकाकी आवश्यकता हमारे लिए लाभ उठानेका उत्तम अवसर है, वह शास्त्र मानुषी नहीं, राक्षसी ही कहा जा सकता है। इस जालमें से निकलने का नाम ही स्वराज्य है। भाई लक्ष्मीदासने बताया है कि इस एक क्षेत्रमें हम इस जालसे कैसे निकल सकते हैं। यद्यपि भाव बढ़े हैं फिर भी हरएक आदमीको इस समय कुछ रुई खरीदकर अपने पास रख लेनी चाहिए; भले उसे कातना न आता हो, तो भी। इसके सिवा, हमें हर किसानको चेतावनी देनी चाहिए कि अपनी सारी कपास वह न बेचे। उसके पास उसकी जरूरतसे ज्यादा हो तो भले बेच दे। जो किसान तात्कालिक लाभके लिए, बढ़े हुए दामोंसे ललचाकर, अपनी सारी कपास बेचेगा, उसे अदूरदर्शी ही कहा जायेगा। सच तो यह है कि हरएक किसान अपनी जरूरतका अन्न और अपनी जरूरतकी कपास संग्रह करे, इतना ही नहीं, उसे उनका संग्रह कमसे कम अपनी सालभरकी जरूरतका खयाल करके करना चाहिए। ताकि यदि किसी वर्ष फसल अच्छी न आये तो उसे चिन्तित न होना पड़े।

मैं यह कोई नई बात नहीं कह रहा हूँ । हमारे जंगली नहीं, सभ्य और ज्ञानी पूर्वज सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले ऐसा ही करते थे। कई तो बीस वर्ष पहले तक भी ऐसा ही करते थे और इसीमें अपनेको सुखी मानते थे। आज हम अल्प दृष्टिवाले लोग अपनी कपास महँगे भावसे बेच देते हैं, फिर अपना समय बेकार नष्ट करते हैं, और बाद में महँगा कपड़ा खरीदकर अपनेको सभ्य मानते हैं। मैं तो अपने उन जंगली माने जानेवाले पूर्वजोंको ही ज्यादा समझदार और दूरदर्शी कहूँगा। हाँ, मैं यह जरूर चाहता हूँ कि हम पाटीदार होने या बनने के झूठे खयालोंको छोड़ दें और सच्चे किसान बनें।

रायलसीमाका इलाका

निजामने अपने प्रदेशका एक बढ़िया इलाका सरकारको दे दिया था। रायलसीमाका यह इलाका तेलुगू भाषी आन्ध्र प्रान्तका हिस्सा है। अंग्रेजीमें इसे 'सीडेड डिस्ट्रिक्ट' कहा जाता है। मैं जो दौरा कर रहा हूँ उसकी समाप्ति इसी इलाकेमें हुई। ऐसा कहा जा सकता है कि मेरे ये तीन दिन यहाँ सभाएँ करते हुए ही बीते दिनमें भी सभाएँ और रातमें भी सभाएँ। इन तीन दिनोंमें हम लोग कालीकारी, चित्तूर, तिरुपति, रेनीगुंटा, राजमपेट, कड़प्पा, ताड़पत्री, गुन्टकल, करनूल और बेल्लारी गाँवमें गये। इनमें से अधिकांश जगहों में कम या अधिक मात्रामें आजकल अकालकी स्थिति है। इलाकेकी आबादी लगभग २८ लाखकी है। अकालके कारण इतनी ज्यादा भुखमरी फैली है कि कहीं-कहीं तो लोग सकुटुम्ब डूबकर, आत्मघात करके, मर गये हैं। बाजारमें अनाज न मिलता हो ऐसी बात नहीं है। लेकिन अनाज खरीदनेके