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हम किसी भी प्रकारके आनन्दका उपभोग कैसे कर सकते हैं? जिसका सगा भाई जेल में बाजरे की रोटी खा रहा हो वह बाहर श्रीखण्डका स्वाद कैसे ले सकता है? जिसके हजारों भाई-बहन भूखसे मर रहे हों वह नाचना-गाना कैसे कर सकता है? दीवाली के इन दिनों में हम बहुत चमक-दमकवाले विदेशी कपड़े खरीदते हैं। मेरी सलाह है कि कोई भी बेकार कपड़ा न खरीदे, जितनी जरूरत हो उतनी हाथकी कती बुनी खादी ही खरीदे और उसे खरीदने में भी जितनी काट-कसर हो सकती हो करे।

चरखा -- अली-भाइयोंका हमदम

अली-भाई जेलमें बैठे-बैठे भी चरखेका ध्यान किया करते हैं। उनका एक तार आया है, जिसमें वे कहते हैं कि हमने तथा हमारे कैदी-भाइयोंने कुछ चरखे हमें देने के लिए सरकारसे कहा है, जिससे कि हम लोग यहाँ फुरसतका वक्त सूत कातकर बिताया करें। इस प्रकार सब लोग अगर निश्चय कर लें तो जरूर ही स्वराज्य जल्द आ जाये। अब देखना है कि सरकार की तरफसे इसका क्या जवाब मिलता है।

अन्त्यजोंके बारेमें

अब हमें इस बातपर विचार करना चाहिए कि अन्त्यजोंके लिए गुजरात में हम क्या करते रहे हैं। हरएक कांग्रेस कमेटी इस दिशामें कुछ करती है या नहीं? ताड़-पत्रीकी कांग्रेस कमेटीने अन्त्यज बहनोंको अपने ही मकानमें काम दिया है। वहाँ सब लोग उनके बीच में उठते-बैठते हैं और वे भी सब लोगोंके बीचमें उठती बैठती हैं। इस तरह ऐसे अनेक रास्ते हैं जिनसे हम अन्त्यजोंको यह बता सकते हैं कि वे हमारे सगे भाई-बहन ही हैं। हाँ, हममें इस बातकी लगन होनी चाहिए। उनके लिए हमने कितने कुएँ खुदवाये हैं? कितनी पाठशालाएँ खोली हैं? उनके साथ हमारे घरमें कैसा व्यवहार किया जाता है? क्या हम उन्हें अपना जूठा भोजन देते हैं? यह अन्तिम सवाल स्त्रियोंके लिए अधिक विचारणीय है। अस्पृश्यताके नाशका केवल इतना ही अर्थ नहीं है कि अन्त्यजका स्पर्श हो जानेपर हम अपनेको अशुद्ध नहीं मानते और नहाते नहीं। हमें अस्पृश्यताके अर्थपर गहरा विचार करना चाहिए। उसमें तिरस्कारकी जो जबरदस्त भावना है उसे हमें जड़मूलसे उखाड़कर फेंक देना चाहिए। जबतक हमने अपने मनसे तिरस्कारकी इस भावनाको नहीं निकाल फेंका तबतक अस्पृश्यता कायम ही है। और तिरस्कारकी यह भावना जिस दिन सम्पूर्ण नष्ट हो जायेगी उस दिन निश्चय ही प्रत्येक अन्त्यज भाई-बहन इस बातको पहचाने बिना नहीं रहेगा।

धर्मके नामपर अत्याचार

कल नवरात्रिका अन्तिम दिन है। गत वर्ष भद्रकालीके मन्दिरमें उस मन्दिरके पुजारीको शहरके महाजनोंने बकरेका बलिदान नहीं करने दिया था और उसके साथ ऐसा समझौता किया था कि महाजन लोग उसे प्रति वर्ष छः सौ रुपये देंगे और वह दूसरी पूजाएँ जो भी उसे करनी हों करेगा, किन्तु देवीको बकरा नहीं चढ़ायेगा।

इस बार पुजारीका कहना है कि वह पिछले वर्षकी प्रतिज्ञासे बँधा हुआ नहीं है। यदि वह ऐसा कहता हो तो वह अपने पापमें प्रतिज्ञा भंग के एक दूसरे पापकी वृद्धि कर रहा है।