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१२५. टिप्पणियाँ

अली-बन्धुओंके बारेमें

अली-भाइयोंका यह सौभाग्य है कि उनके कितने ही पक्के मित्र हैं। और यह भी उनका सौभाग्य है कि उनके कितने ही जबरदस्त आलोचक भी हैं। एक मित्र मुझे लिखते हैं कि आप अली-भाइयोंपर इतने मुग्ध हो गये हैं कि उनकी कोई भी बुरी बात आपको नहीं दिखाई देती। उनका कहना ठीक ही है। सन्देह न रखना ही मित्रताकी खास खूबी है, परन्तु जो अपने मित्रोंकी दुर्बलताओंको नहीं जानता, वह मित्र बुरा होता है। मैं अलीभाइयोंकी कमजोरियोंको जानता हूँ। लेकिन कमजोरियाँ तो मुझमें भी हैं, और इसलिए उनकी दुर्बलताओंके प्रति मेरा हृदय कोमल है। मेरा हृदय कहता है कि अबतक जिन-जिन लोगोंके साथ काम करनेका सौभाग्य मुझे मिला है, अली-भाई उन सबसे बढ़कर और सबसे अधिक वीर हैं। यह तो उनके विरुद्ध लगाये सामान्य आरोपके विषयमें हुआ।

उनकी विसंगति

परन्तु उनपर एक खास इल्जाम भी लगाया गया है। एक महोदय लिखते हैं :

मैं कुछ प्रश्न आपके सामने पेश करता हूँ। मैंने उनपर काफी देरतक और गहरा विचार किया है। परन्तु फिर भी असहयोगके सिद्धान्तसे मैं उनका मेल न बैठा सका। क्या आप कृपा करके बतायेंगे कि मेरी यह उलझन दरअसल ठीक है या निस्सार?

असहयोगका तकाजा है कि जब किसी अंग्रेजी अदालत में किसीपर मुकदमा चलाया जाये तो उसे उस मुकदमेकी कार्रवाईमें किसी भी तरहकी मदद न देना चाहिए। लेकिन क्या अली-भाइयोंका बयान देना अदालतको एक तरहकी मदद देना नहीं है? खुद सरकारी वकीलने भी यह कहकर इस बातको साफ कर दिया है कि मुल्जिमोंके बयानोंने मेरा काम बहुत-कुछ हल्का कर दिया है। . . .

दूसरी उलझन जो मुझे चक्करमें डाल रही है, यह है कि अभीतक हमने सविनय अवज्ञा प्रारम्भ नहीं की है। अतएव हमें फिलहाल तो अंग्रेज अफसरोंके हुक्मोंको जरूर ही मानना चाहिए। खुद आपने भी उस हुक्मको नहीं तोड़ा है जिसमें आपको मलाबार जानेसे मना किया गया था। ऐसी अवस्थामें क्या मौलाना मुहम्मद अलीके लिए यह वाजिब था कि कराचीके मजिस्ट्रेट द्वारा उनसे बैठ जानेको कहा गया तो उन्होंने उसकी आज्ञा माननेसे इनकार कर दिया और नाराज भी हुए। क्या यह मजिस्ट्रेटके हुक्मका जाहिरा तौरपर भंग करना नहीं था ? क्या मौलाना मुहम्मद अलीका मजिस्ट्रेट से यह पूछना कि "आप