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ऐसा न हो कि बयान न पेश करके जनताको इस भ्रममें डाल दें कि वे निर्दोष हैं। इस कसौटीपर वही बयान खरा उतर सकता है जो छोटा और विषयसे पूरी तरह सम्बद्ध हो, और जिसमें कोई दलील न दी गई हो।

मौलाना मुहम्मदअलीका बयान इस श्रेणीमें नहीं आता। वे तो इस्लामके विधानकी लम्बी-चौड़ी व्याख्यामें लग गये। उन्होंने स्पष्टतः अपनी सफाईके लिए अदालतका "उपयोग" नहीं किया; बल्कि अपने स्वीकृत कार्यका प्रचार करनेके लिए किया। लोगोंने उनके बयानको बड़े चावके साथ पढ़ा है। उन्होंने उसे यदि निबन्धके रूपमें लिखा होता तो उसका असर मारा जाता। इसलिए मैं न तो उस बयानके पक्षमें कुछ कहने के लिए तैयार हूँ और न विपक्षमें।

हाँ, वह छोटा तो जरूर ही किया जा सकता था। लेकिन संक्षेपमें कुछ कहना मौलाना मुहम्मद अलीके लिए नामुमकिन-सा हो गया है। मैं जानता हूँ उन्होंने थोड़े में व्याख्यान देने का वादा करके भी एक-एक घंटातक लगाया है।

दूसरा आरोप ज्यादा गम्भीर है। बैठने से इनकार करने के मामलेमें सविनय या विनयहीन अवज्ञा करनेका कोई सवाल नहीं था। वह तो सिर्फ रुचिका सवाल था। यह सब दृश्य मुझे तो पसन्द नहीं आया। बेशक, उसमें कोई गुस्ताखीकी बात नहीं थी, लेकिन एक गैर-जरूरी जिद्द जरूर थी। मैं मानता हूँ कि असहयोगीको बिलकुल नम्र होना चाहिए, और उन कैदियोंका व्यवहार नम्रताकी सीमाके बाहर था।

लेकिन फिर भी मैं उन कैदियोंके व्यवहारकी निन्दा करने में असमर्थ हूँ। उन्होंने इसके द्वारा एक प्रयोजनकी पूर्ति की है और वह कोई बुरा प्रयोजन नहीं है। हमें बहुत भयभीत करके रखा गया है। अदालतों के आसपास देखिए तो एक खास भय और भीतिका वायुमण्डल फैला रहता है। कानून और अदालतोंके प्रति आदर एक चीज है और उनका डर दूसरी चीज। मेरी राय में तो अली-भाई और उनके साथी कैदी शरारतपर तुले हुए थे। वे अदालतकी और कैदखानेकी दहशतको मिटा देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने समझ-बूझकर अदालतको इस तरह ललकारा। अगर मजिस्ट्रेटने स्थितिके इस विनोदात्मक रंगको समझ लिया होता तो अली-भाइयोंने वैसा दुराग्रह नहीं किया होता जैसा वे कर रहे थे। अदालत अपनी शानपर कायम रहना चाहती थी। लेकिन अली-भाई उसे वैसा करने देना नहीं चाहते थे। मैं इनकार नहीं कर सकता कि इसका इससे अच्छा रास्ता भी था, फिर भी मेरा यह निश्चित मत है कि अली-भाइयोंने अपने अक्खड़ आचरण द्वारा हमारे उद्देश्यकी सेवा ही की है। अगर वे नम्रता धारण कर लेते तो उद्देश्यको हानि पहुँचाते। उन्होंने इस बार भी अपनी सच्चाई और स्वाभा विकता सिद्ध कर दिखाई है। और यही मेरी दृष्टिमें उनके चरित्रका अत्यन्त प्रिय और प्रधान अंग है। हमको याद रखना चाहिए कि हमको इन आजकी अदालतोंकी प्रतिष्ठा समाप्त करनी है; क्योंकि ये हमारे मतमें प्रतिष्ठाके लायक नहीं हैं। लेकिन एक ओर जहाँ मैं अली-भाइयोंके अक्खड़ व्यवहारको बुरा नहीं बता सकता वहाँ दूसरी ओर, मैं उसे ऐसे नमूने के तौरपर भी पेश नहीं करता, जिसका अनुसरण दूसरे लोग करें। जो ऐसा करनेका प्रयत्न करेंगे वे असफल हुए बिना न रहेंगे। क्योंकि मुझे पाठकोंको यह बता देना चाहिए कि अली-भाइयोंके दिलमें मजिस्ट्रेटके प्रति दुर्भाव नहीं