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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है, और मुझे इसमें कोई शक नहीं है कि जब मजिस्ट्रेट अदालत के बाहर हों तब उनसे वे उसी शिष्टतासे पेश आयेंगे जिससे वे मेरे साथ आते हैं।

एक प्रत्यक्षदर्शी

नीचे एक पत्र दिया जाता है, जिसमें उसके लेखकने उस दृश्यका अपनी आँखों देखा हाल लिखा है। उससे पाठक वहाँकी स्थितिका शायद और अच्छा अन्दाजा कर सकेंगे। पत्र इस प्रकार है :

अखबारोंमें आपने इस मुकदमेकी कार्रवाई पढ़ी ही होगी। लेकिन इस मामलेकी कार्रवाईके मूक प्रेक्षकपर उसकी कैसी छाप पड़ी, यह बता देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। आरम्भमें ही "वीर" मुल्जिमको झिड़क देनेकी कोशिश की गई, लेकिन उस अभागे मजिस्ट्रेटका पाला किसी ऐसे-वैसेसे नहीं, मौलाना मुहम्मद अलीसे पड़ा था। और उस भले आदमीको उसके "योग्य" ही " डाँट-डपट" मिल गई।

मैं स्वीकार करता हूँ कि मेरी जिन्दगीमें यह दूसरा मौका था, जब मैं किसी अदालत में किसी मुकदमेकी पेशी देखनेके लिए गया। ... जहाँ कानून और व्यवस्थाका शासन है, उस देशमें लॉर्ड रीडिंगके[१] राज्यका यह तथाकथित न्यायालय एक नाटकगृहसे बेहतर नहीं था।

नहीं, मैं गलती कर रहा हूँ। नाट्यशालामें तो नट अपना-अपना काम ईमानदारीके साथ करके अपने दर्शकोंको, जो अपने मनबहलावके लिए रुपया देकर वहाँ जाते हैं, खुश करते हैं, लेकिन अंग्रेजी अदालतका "न्यायाधीश", फिर चाहे वह गोरा हो या काला, प्रामाणिकतासे कोसों दूर रहता है और मुझे विश्वास है कि न्याय शब्द तो उसके कोशमें रहता ही नहीं।

मैं वकील नहीं हूँ। इसलिए मैं कानूनी बेकायदगियोंको नहीं जान पाया; पर अगर सामान्य बुद्धिसे कानूनका कुछ भी सम्बन्ध है तो मैं साहसके साथ कह सकता हूँ कि उस दिन खालिकदीन हालमें जो कुछ भी हुआ वह एक खासा तमाशा था।. . .

गवाहोंके बयान और साजिशको साबित करनेका तरीका बड़ा मजेदार था; और मुकदमेके अन्तमें निष्कर्ष रूपमें सरकारी वकीलने जो तकरीर की, उसके बारेमें तो कुछ कहना ही बेकार है।

मैं खुद तो इसी नतीजेपर आ पहुँचा हूँ कि इन अदालतोंमें बयान पेश करना भी अरण्यरोदनके समान है। हां, अगर वह अपने देश-भाइयोंके प्रति आखिरी अपोलके रूपमें हो, और उससे प्रचारका उद्देश्य सिद्ध होता हो तो बात और है।

  1. भारतके वाइसराय और गवर्नर-जनरल, १९२१-२६।