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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बरताव अधिक पुरुषोचित और स्वाभाविक नहीं था ? जहाँ बुलन्दशहरके जैसा मौका आता हो, वहाँ मनुष्यका अपना बल ही उसकी रक्षाका साधन हो सकता है। और मुझे इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि जब अली-भाइयोंने अदालतको ललकारा, तब उनकी नजर में अपने देश-भाइयोंकी राजनैतिक निर्बलता ही थी।

अदालतोंमें हिन्दुस्तानी

डा० किचलू अंग्रेजीमें बोलनेसे इनकार करनेके लिए बधाई के पात्र हैं। कुछ विशेष अवसरोंको छोड़कर, अदालतोंमें हमें निश्चय ही अपनी मातृभाषामें शहादत देनेपर आग्रह रखना चाहिए। जब अंग्रेजीमें बोलना या बहस करना होता है, तो हममें से अच्छेसे-अच्छे लोगोंके लिए भी यह कठिनाईकी स्थिति होती है। और अगर सभी अपनी भाषा के अतिरिक्त और किसी भी भाषामें बोलनेसे इनकार कर दें, तो शीघ्र ही हमें अनुवादकोंसे छुट्टी मिल जाये और न्यायाधीशोंके लिए उस प्रान्तकी भाषा जानना जरूरी हो जाये, जिस प्रान्तमें वे नियुक्त किये जाते हैं। दुनियामें और कहीं भी ऐसा नहीं है कि न्यायाधीश उन लोगोंकी भाषासे अनभिज्ञ हों जिन्हें उन्हें न्याय देना है।

पतनका कारण

एक पत्रलेखक पूछते हैं, "क्या यह सच नहीं है कि हिन्दू राज्योंका पतन जनतामें बहुत अधिक आध्यात्मिकता आ जानेसे ही हुआ ?" मैं नहीं समझता कि बात ऐसी है। सत्य तो यह है कि हिन्दुओंकी पराजय बराबर तभी हुई है जब उनमें आध्यात्मिकता अर्थात् नैतिक शक्तिका अभाव हो गया है। राजपूत लोग छोटी-छोटी बातोंके लिए आपसमें लड़ते रहे और इस तरह उन्होंने भारतको खो दिया। उनमें व्यक्तिगत शूरता तो थी, लेकिन उन दिनों सच्ची आध्यात्मिकताका उनमें बड़ा अभाव था। रावण क्यों पराजित हुआ, और रामको अगर आध्यात्मिकताका बल नहीं होता तो वे वानरोंकी सेना लेकर विजयी कैसे हो जाते? हम अकसर आध्यात्मिक ज्ञान और आध्यात्मिक सिद्धिको एक ही बात मान लेनेकी भूल कर बैठते हैं। धर्म-ग्रन्थोंका शाब्दिक ज्ञान और दार्शनिक वाद-विवाद कर सकनेकी योग्यताका मतलब आध्यात्मिक सिद्धि नहीं है। आध्यात्मिकता तो हृदयका शोधन और संस्कार है; वह एक अपरिमेय शक्ति है। निर्भयता आध्यात्मिकताकी सबसे पहली अपेक्षा है। जो कायर हैं, उनमें नैतिकता कभी आ ही नहीं सकती।

मूल कारण

वही पत्र-लेखक पूछते हैं : "क्या आप ऐसा नहीं समझते कि मौजूदा विदेशी सरकारकी सफलताका कारण उच्च वर्गीय लोगों द्वारा गरीबों, कमजोरों और तथाकथित अस्पृश्योंका शोषण है ? हम जो अपने ही भाई-बन्धुओंका शोषण करते हैं, अवश्य यही इसका मूल कारण है। यह हमारे अध्यात्मकी राहसे भटक जानेकी निशानी है। हमने अपनी ही जातिके छठे हिस्सेका घोर शोषण किया है और धर्मके पवित्र नामपर उन्हें योजनापूर्वक पतितावस्थामें डाल दिया है। विदेशी शासनका अभिशाप और उसके साथ चलनेवाला शोषण हमारे इसी पापका अत्यन्त उपयुक्त दण्ड है। यही