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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसके पास काम नहीं है जिससे यह अपनी रोटी कमाये। खुलनाके लोग भूखों मर रहे हैं -- इसलिए नहीं कि वे काम नहीं कर सकते, बल्कि इसलिए कि उनके पास काम नहीं है। रायलसीमाका इलाका लगातार चौथी बार अकालके दौरसे गुजर रहा है, उड़ीसा तो बहुत समयसे अकालसे पीड़ित है। भारत नगरोंमें नहीं रहता। वह तो अपने साढ़े सात लाख गाँवोंमें रहता है, और उसके नगर इन गाँवोंके बूते ही पलते हैं। उनके पास जो धन-ऐश्वर्य है उसे वे किसी दूसरे देशसे नहीं लाते। नगरवासी लोग यूरोप, अमेरिका और जापानकी बड़ी-बड़ी पेढ़ियोंके दलाल और कमिशन पानेवाले एजेंट हैं। पिछले दो सौ वर्षोंसे जो इस देशका खून चूसा जाता रहा है, उसमें इन नगरोंने इन विदेशी पेढ़ियोंके साथ सहयोग किया है। मैं अपने अनुभव के आधारपर ऐसा मानता हूँ कि भारत दिन-ब-दिन गरीब होता जा रहा है। उसके पाँवोंमें रक्तका संचार बन्द हो गया है, और अगर अब हम इसके उपचारकी ओर ध्यान नहीं देते तो वह गिरकर दम तोड़ देगा।

भूखसे मरते बेकार लोगोंका परमेश्वर तो योग्य काम और उससे मिलनेवाली रोटी ही है; उनके लिए परमेश्वरका यही एक मात्र स्वीकार्य रूप हो सकता है। ईश्वरने मानवकी सृष्टि काम करके अपना भोजन जुटानेके लिए की और कहा कि जो काम नहीं करते वे चोर हैं। भारतके अस्सी प्रतिशत लोगोंको लाचारीवश आधे सालतक चोरोंका जीवन बिताना पड़ता है। फिर क्या आश्चर्य, यदि भारत आज एक विशाल कारागार बन गया है ? भूख ही वह कारण है जो भारतको चरखेकी ओर लिये जा रहा है। चरखेकी पुकार सबसे उदात्त, सबसे मीठी है। कारण, यह प्रेमकी पुकार है। और प्रेम ही स्वराज्य है। अगर यह कहा जा सकता हो कि आवश्यक शारीरिक श्रमसे बुद्धि मन्द पड़ जाती है तो ही यह कहा जा सकता है कि चरखा लोगोंकी “बुद्धिको मन्द" कर देगा। हमें उन करोड़ों लोगोंके बारेमें सोचना है, जो आज पशुओंसे भी गई-बीती स्थितिमें हैं, लगभग मरणासन्न हैं। चरखा जलकी वह घूंट है जो हमारे करोड़ों दम तोड़ते भाई- बहनोंमें पुनः प्राणका संचार कर देगा। कोई पूछ सकता है : "मुझे तो अपने भोजनके लिए काम करनेकी जरूरत नहीं है, इसलिए मैं क्यों चरखा चलाऊँ ?” उत्तर है, इसलिए कि मैं जो खा रहा हूँ, वह सचमुच मेरा नहीं है। मैं अपने देशभाइयोंको लूट कर खा रहा हूँ। आप तनिक अपनी जेबमें आनेवाले पैसे-पैसेके बारेमें सोचकर देखें कि वह कैसे आपकी जेबमें आया; फिर आपको मेरी बातकी सचाईका एहसास हो जायेगा। अगर हमारे करोड़ों देशभाइयोंको अपने बेकार समयका उपयोग करना नहीं आता तो उनके लिए स्वराज्यका कोई मतलब नहीं है। इस स्वराज्यको थोड़े ही समय में प्राप्त करना सम्भव है और इसका एकमात्र उपाय यह है कि हम फिरसे चरखेकी शरण में जायें।

मैं विकास चाहता हूँ, आत्म-निर्णयका अधिकार चाहता हूँ, स्वतन्त्रता भी चाहता हूँ, लेकिन सब-कुछ आत्माकी खातिर चाहता हूँ। मुझे तो इसमें शक है कि मानव लौह युगमें प्रस्तर युगसे सचमुच आगे बढ़ा है। मैं इस ओरसे उदासीन हूँ। हमें अपनी बौद्धिक शक्ति और अन्य सभी शक्तियोंका उपयोग आत्माके विकासके लिए करना है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न किसी व्यक्तिके बारेमें मैं आसानीसे