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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसका उत्तर बम्बई ही दे सकता है। जो स्वदेशीका पूरा पालन नहीं करता है उसे विद्रोह करनेका अधिकार नहीं है, क्योंकि वह अपने क्रोधको नहीं रोक सकेगा और नाजुक वक्त आनेपर शान्ति कायम नहीं रख सकेगा। और यदि शान्ति कायम नहीं रहेगी तो जीतने का मौका आनेपर भी हम बाजी हार जायेंगे। हमसे ऐसी भूल नहीं होनी चाहिए।

बम्बईने शान्तिका पाठ समझ लिया है, बम्बईमें गम्भीरता आ गई है, बम्बई संकल्पका धनी है, बम्बईके हिन्दू-मुसलमान और पारसी एक मन और एक दिल हो गये हैं —— इन सबकी निशानी चरखा है, इसकी निशानी पींजन है, इसकी निशानी करघा और खादी है। यदि बम्बईके नागरिक —— स्त्री-पुरुष और बालक हजारोंकी संख्या में पींजें, कातें, बुनें और खादी पहनें तो वे अवश्य ही शान्ति-युद्ध के योग्य हो सकते हैं।

इसका अर्थ यह नहीं है कि हर स्त्री और पुरुष कातने लग जायेगा अथवा खादी पहनने लग जायेगा। सम्भवतः अंग्रेज खादी नहीं पहनेंगे, सहयोगी लोग भी शायद खादी नहीं पहनेंगे और सरकारी नौकर भी इतनी हिम्मत नहीं करेंगे। इसलिए विदेशी कपड़ेकी एक-दो दूकानें तो रह जायेंगी और थोड़ा-बहुत विदेशी कपड़ा बिकता रहेगा। किन्तु बम्बईके बाजारों, मस्जिदों, मन्दिरों, समारोहों और विवाह-शादियोंका रंग तो बदल ही जायेगा। इन सब जगहों और मौकोंपर तो खादी-ही-खादी दिखाई देनी चाहिए। नाटकों का रंग भी बदला हुआ होना चाहिए। यदि लोगोंको विदेशी कपड़ा पसन्द नहीं होगा तो जिन नाटकोंमें विदेशी कपड़ेका व्यवहार होता होगा क्या वे उनमें जायेंगे ? विदेशी कपड़ेका मोह दूर न हो और खादीका प्रचार हो जाये मैं यह असम्भव समझता हूँ। जहाँ-जहाँ सामान्य और स्वतन्त्र लोग जाते हैं वहाँ-वहाँ भी मैं अवश्य ही खादी के उपयोग किये जानेकी आशा रखता हूँ।

इतना काम बम्बईके लोग इस महीनेके अन्ततक कर सकते हैं। जब बम्बई इतना कर ले तब वह भले ही अकेला अहिंसात्मक युद्ध छेड़ दे।

मुझे आशा है, कोई इस तरहकी शंका नहीं करेगा कि अहिंसात्मक युद्धके साथ खादीका क्या सम्बन्ध है। मैं ऊपर बता चुका हूँ कि चरखा शान्तिका चिह्न है और जब उसकी माँग भी अहिंसाके नामपर की जाती है तब जो लोग अहिंसाको नहीं मानते वे चरखेका उपयोग नहीं करेंगे अथवा करेंगे तो प्रेमपूर्वक नहीं करेंगे। हमने चरखेमें वीरता, सच्चाई, सादगी और अहिंसा आदि गुणोंका आरोप किया है; इसलिए चरखा अधिकाधिक इन गुणोंका पोषक बनता जायेगा।

स्वराज्यकी प्राप्ति और खिलाफतकी रक्षाके लिए किये जानेवाले विद्रोहमें थोड़े आदमियोंसे काम नहीं चलेगा। उसके लिए तो हमें हजारों आदमियोंकी जरूरत है। यदि हमें अकेली बम्बईसे ही स्वराज्य लेनेकी शक्ति प्राप्त करनी हो तो हमें एक लाख सैनिकोंकी जरूरत होगी। इनमें स्त्री और पुरुष दोनों ही हो सकते हैं। सोलह सालसे ऊपर किसी भी उम्र के स्त्री-पुरुष काम आ सकते हैं। इतने सैनिकोंके खानपानका प्रबन्ध कोई भी संस्था नहीं कर सकती। अगर कांग्रेस यह काम अपने ऊपर ले तो हम हार जायेंगे। इतने आदमियोंका खर्च फी आदमी आठ आना रोजके हिसाबके लगायें तो