पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/३४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१२८. टिप्पणियाँ

थकावट

जब मुझसे कोई कहता है कि लोग अब थकने लगे हैं, कोई नई बात बताइए, तब मैं हैरान हो जाता हूँ, तब मैं समझता हूँ कि लोग स्वराज्यका रहस्य नहीं जानते, धर्म-युद्धका अर्थ नहीं समझते।

स्वराज्य अगर नित्य बदलनेवाली कोई चीज हो तो उसके उपाय भी बदलें। मैं तो स्वदेशीके सिवा दूसरा उपाय नहीं खोज सकता; और अगर हम स्वदेशीसे ऊब गये हों तो हमें स्वराज्यसे भी उदासीन हो जाना पड़ेगा।

अगर कोई साँस खींचनेसे ऊबने लगे तो मानना चाहिए कि वह मरनेकी तैयारीमें है। तन्दुरुस्त आदमीकी साँस चलती रहती है, नाड़ी चलती रहती है, और इन्द्रियाँ भी अपना काम करती रहती हैं; पर इसकी खबरतक उसको नहीं रहती। जरूरी तमाम क्रियाओंको करते हुए भी वह कभी नहीं थकता। कवि अपनी शक्तिका उपयोग करते हुए कभी नहीं थकता; और जो कवि-कर्म करते हुए थक जाता है वह कवि ही नहीं है। सारंगी जिसके हाथमें खेलती है वह वादक बजाते हुए कभी नहीं थकता। इसी प्रकार अगर हमपर स्वदेशीका रंग गाढ़ा चढ़ गया है तो हम उससे ऊब नहीं सकते; बल्कि हमारे निकट तो यही स्पष्ट होगा कि जितनी सीढ़ियाँ हम स्वदेशीकी चढ़े हैं उतनी ही स्वराज्यकी चढ़े हैं और जिस प्रकार हम स्वराज्यका रास्ता तय करते हुए कभी ऊब नहीं सकते उसी प्रकार स्वदेशीकी राहपर बढ़ते हुए भी हम नहीं ऊब सकते। मनुष्य स्वच्छ और प्राणप्रद हवामें आगे बढ़ता हुआ जैसे अधिकाधिक शक्तिमान होता जाता है, ऐसा ही अनुभव हमें होना चाहिए। स्वदेशीकी दिशामें हमारा बल मंजिल-दर-मंजिल बढ़ता ही चलता है। एक साल पहले जो लोग चरखेका मजाक उड़ाया करते थे, आज वे कहाँ हैं ? श्रीयुत प्रफुल्लचन्द्र राय[१] हमारे एक महान विज्ञानाचार्य हैं। वे श्रीयुत वसुकी[२] जोड़के हैं। सूक्ष्म शास्त्रोंके परवैया हैं। स्वयं कितनी ही कम्पनियोंसे उनका सम्बन्ध भी है। पर उन्हें भी कबूल करना पड़ा है कि बंगालके साढ़े चार करोड़ स्त्री-पुरुषोंका एकमात्र आधार चरखा ही है। जो व्यक्ति ऐसे उत्तम कार्यक्रमसे थक जाता है, वास्तवमें वह उसका रहस्य ही नहीं जानता।

ऊबा हुआ योद्धा क्या लड़ेगा ? जो योद्धा हमेशा अपनी लड़नेकी गति कायम नहीं रखता वह हारे बिना नहीं रहता। हम तो उत्तरोत्तर आगे ही बढ़ते गये हैं। धारासभा, खिताब, वकील और विद्यार्थियोंके किलोंको थोड़ा-बहुत हमने तोड़ा और थोड़ा-बहुत हमारे हाथ भी लगा; उससे हमारा काम भी थोड़ा-बहुत चला। परन्तु इस विदेशी कपड़ेके किलेने तो हमारे सारे रास्ते ही रोक रखे हैं। इस किलेको

  1. (१८६१ - १९४४ ); देशभक्त और वैज्ञानिक।
  2. सर जगदीशचन्द्र वसु, एफ० आर० एस० वनस्पति शास्त्री।