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हम जबतक मिट्टीमें नहीं मिला देते तबतक हम स्वराज्यकी आशा नहीं रख सकते। उसके समूल नाशपर ही स्वराज्य प्राप्त हो सकता है। इसलिए, चाहे महीना लगे या महीनों, विदेशी कपड़ेकी चट्टान के टुकड़े-टुकड़े किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। दूसरी चट्टानोंमें तो हम छेद करके ही पार हो गये थे।

स्वराज्य क्या चीज है, सो तो अनुभवके बाद ही समझा जा सकता है। रोगीका रोग दूर हुआ या नहीं, इसका अन्तिम निर्णय तो स्वयं रोगी ही कर सकता है। जो रोगी बिछौनेपर ही पड़ा रहता था, उठ-बैठ ही नहीं सकता था, उसकी चरबी बढ़ जाये, चेहरेपर सुर्खी छिटकने लगे, और वैद्य भी कह दे कि हाँ, अब तुम चंगे हो गये, तो भी रोगी इसे नहीं मान सकता। स्वराज्य मिला है या नहीं, इस बातका साक्षी तो प्रत्येक मनुष्य स्वयं ही अपने लिए हो सकता है। और अगर यह सिद्ध होता है कि चरखेसे, धुननेसे, करघेसे और खादीसे लोगोंका जी ऊब उठा है तो उसका अर्थ मैं यह करता हूँ कि लोगोंको स्वराज्यकी जरूरत ही नहीं है। यदि कोई रोजके-रोज लंघन करे अथवा चावलको छोड़कर भूसी खाये तो हम यही कहेंगे कि यह व्यक्ति आत्मघात करना चाहता है। उसी प्रकार जो स्वदेशीका उल्लंघन करता है उसके विषय में कहा जा सकता है कि इसे स्वराज्यकी इच्छा नहीं है।

क्या कार्यकर्त्ताओं और उनके कुटुम्बियोंने पूरी तरह स्वदेशीको अंगीकार कर लिया है, अब ज्यादा करनेकी गुंजाइश नहीं है और वे इसीलिए उसमें रस नहीं लेते? जबतक सभी असहयोगी स्वयं तथा उनके परिवारोंका एक-एक व्यक्ति स्वदेशी मय नहीं हो गया है तबतक विराम लेने या निराश होनेका कोई कारण ही नहीं है। और जिस दिन तमाम असहयोगी अपना कर्त्तव्य समझकर सच्चे स्वदेशी हो जायेंगे उस दिन मुझे विश्वास है कि सारा हिन्दुस्तान स्वदेशी हो जायेगा। आजकी हमारी थकावट तो बालकोंकी थकावट जैसी है। बालकको जो सवाल कठिन मालूम होता है उसको वह छोड़ देता है और कहता है -- दूसरा सवाल दीजिए। जो शिक्षक इस प्रकार बालकको थकने और हारने देता है वह उसका शत्रु है। दिया हुआ सवाल हल कर लेनेपर ही बालकको छुट्टी दी जा सकती है। उसी प्रकार स्वदेशीका जो यज्ञ हमने आरम्भ किया है उसके पूर्ण हो जानेपर ही बात बन सकती है। हमारी यह उकताहट अपनी अपूर्णता और अज्ञानके कारण है। हम स्वराज्यकी कीमत नहीं जानते। और अगर जानते हैं तो उसे चुकाना नहीं चाहते। हमारा खिलाफत सम्बन्धी प्रेम सभाएँ करके और चन्दा देकर ही समाप्त हो जाता है। अगर ऐसी ही स्थिति रहे तो स्वराज्य कभी नहीं मिल सकता। स्वराज्य प्राप्त करनेके लिए पहले हमको उद्योगी बनना होगा; सभाओंका जुलूसोंका, व्याख्यानोंका शौक हमें छोड़ना होगा; और यदि ऐसा मालूम होता हो कि अभी इन खेल-तमाशोंकी जरूरत है तो कुबूल करना होगा कि अभी स्वराज्य दूर है।

स्वेच्छापूर्वक नियम पालन

एक मित्रने मुझसे कुछ सवाल पूछे। उत्तर सहित उनको नीचे देता हूँ:--

सवाल -- क्या स्वराज्यमें हमें कुछ कानूनोंकी जरूरत पड़ेगी?

जवाब -- जी हाँ।