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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तब तो लोगोंको वे कानून मानने भी पड़ेंगे ? जरूर, लेकिन वे स्वेच्छापूर्वक उन्हें मानेंगे। अगर वे कानून-कायदे लोगोंकी सलाहसे बनाये हुए होंगे तो वे उन्हें खुशीसे मानने लगेंगे। क्या इसमें आपको कोई अचरज मालूम पड़ता है?

जी हाँ, इसमें मुझे कुछ शक होता है।

मैंने पूछा -- किस तरह?

अपने अनुभवसे।

मैं चौंका, और मैंने फिर पूछा : मुझे समझाओ। मैं जरा उलझनमें पड़ गया हूँ।

देखिए, नागपुरमें २०,००० मनुष्योंने असहयोगका प्रस्ताव पास किया था। जिन-जिन लोगोंने उस प्रस्तावको मंजूर किया, उनके लिए तो वह बन्धन-कारक था ही। लेकिन फिर भी क्या उन सब अर्थात् बीसों हजार मनुष्योंने उसका पालन किया है ? क्या वहाँ हाजिर रहनेवाले सभी वकीलोंने वकालत छोड़ दी ? जो विद्यार्थी वहाँ मौजूद थे क्या उन्होंने स्कूल या कालेज छोड़ दिये ? सबने स्वदेशी-व्रतका पालन किया ? सभीने चरखा अपनाया ? इन बातोंको भो जाने दीजिए। कार्यकारिणी समितिने जो-जो प्रस्ताव पास किये हैं, क्या सब जगह उनपर अमल हुआ ? जैसा महासभाका हाल है वैसा ही छोटी-छोटी संस्थाओंके लोगोंका भी है। हमारी जितनी संस्थाएँ हैं उनमें अपने ही बनाये हुए कायदोंका पालन कितने लोग करते हैं ? मुझे सार्वजनिक जीवनका तजुरबा है और मैंने देखा है कि अपने ही बनाये हुए कायदोंका पालन हम खुद बहुत थोड़ा करते हैं। जबतक यह कुटेव नहीं छूटती तबतक क्या हम स्वराज्यका उपभोग कर सकते हैं। क्या आप यह नहीं मानते कि इस दुःखके समय बनाये हुए नियमोंके पालन करनेकी हमारी शक्ति में ही स्वराज्य है ? और आज अगर हममें वह शक्ति नहीं है, तो फिर स्वराज्यके मिल जानेपर भी वह हममें नहीं आ सकती। अर्थात् उस शक्तिके बिना स्वराज्य असम्भव है। फिर, अपने ही बनाये हुए कायदोंका पालन करना तो बड़ी ही आसान बात है। क्योंकि इसके लिए हमें किसी दूसरेसे जाकर कहनेकी जरूरत नहीं रहती। मैं जो कह रहा हूँ इसका सम्बन्ध सिर्फ उन लोगोंसे है जिन्होंने अपना मत प्रस्तावके पक्षमें दिया था अर्थात् जो कांग्रेसी असहयोगी हैं और जिन्होंने प्रस्ताव पास करनेके लिए हाथ उठाया था उन्हें तो तदनुसार आचरण करना था; किन्तु जब मैं उनकी हालतपर विचार करता हूँ तो व्याकुल हो उठता हूँ और इसी साल स्वराज्य प्राप्त कर लेनेकी बातपर मुझे सन्देह होने लगता है।

इसके प्रत्युत्तरमें मैंने कहा : हाँ, आप जो-कुछ कह रहे हैं उसमें सत्यांश जरूर है। हम सब अपने ही बनाये हुए नियमोंका पूरी तरह पालन नहीं करते। फिर भी आपको यह तो कबूल करना ही पड़ेगा कि बारह महीने पहले हम जितने लापरवाह थे उतने आज नहीं हैं। कहा जा सकता है कि नागपुरके प्रस्तावपर लोगोंने अच्छी