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चला रहे हैं जिससे हम अपना एक भी अधिकार प्राप्त न कर पायें। यदि भारतीयोंके अधिकार उनसे छिनाये गये, तो इसे दिन-दहाड़े लूटमार कहा जायेगा। मैं आशा करता हूँ कि पूर्वी आफ्रिकामें भारतीय ऐसा कोई समझौता नहीं करेंगे जिससे उनके हकोंपर आँच आये। भारत इस मामलेमें उनकी एक ही तरहसे मदद कर सकता है और वह है मदद देनेकी शक्ति प्राप्त करना; यह शक्ति है स्वराज्य।

अस्पृश्यताका फल

हम लोग संसारमें सभी जगह इस तरह अछूत क्यों माने जा रहे हैं ? मुझे इसका कारण स्पष्ट दिखाई देता है। ईश्वर आदमीको उसके पापकी सजा रहस्यमय रीतिसे दिया करता है। हमने अपने ही छ: करोड़ लोगोंको जो कुछ बना दिया है, जगतने वही हमें बना दिया। हम जहाँ-कहीं भी जाते हैं, यह कलंक हमारे साथ रहता है| आफ्रिकाके हब्शी भी हमें गुलाम मानकर तिरस्कार करते हैं, यह मैंने देखा है। जबतक हम लोग अछूतोंके प्रति वास्तविक ममताका अनुभव नहीं करते, तबतक हम जगतकी मैत्रीके पात्र नहीं बन सकते। हम धर्मके नामपर अपने आपको धोखा दे रहे हैं और जड़ता अपनाये हुए हैं। इसीलिए हम बहुत नीचे गिरते चले जा रहे हैं। मुझे तो अन्त्यजोंकी अपेक्षा भी हम सबकी स्थिति अधिक करुणाजनक लगती है, क्योंकि हम तो संसार और ईश्वर दोनोंकी ठोकरें खा रहे हैं। अन्त्यज केवल हमारी ठोकरें खाते हैं, जब कि हम जगत और ईश्वर, दोनोंकी ठोकरें खा रहे हैं। अन्त्यजोंको ईश्वर ठोकर नहीं मारता। उनकी त्रुटियोंके पक्षमें तर्क दिये जा सकते हैं, और उनकी निर्योग्यताएँ सिद्ध की जा सकती है और उस सबसे उनका पक्ष सबल बनेगा। अस्पृश्यताका मैल धोनेका अर्थ है अपने मनका मैल धोना। जबतक यह मैल हमारे मनसे नहीं गया है, तबतक हम कोई दूसरा चाहे जितना अच्छा काम क्यों न करें, उसका फल नहीं होगा। जिस आदमीके हृदयमें कठोरताने घर कर लिया है, उसका छुटकारा नहीं हो सकता। और जब आदमी धर्मके नामपर निर्दयता अपना लेता है, तब उसके मनकी निर्दयता हटाये नहीं हटती। जो व्यक्ति धर्मके नामपर पशु वध करता है, उसे पशु-वध सम्बन्धी क्रूरता समझाना कठिन है। जो स्वादके लिए पशु वध करता है, उसे समझाना सरल है। इसलिए हम बहुत ही ध्यानसे, जबतक अन्त्यजोंके प्रति तिरस्कारकी भावनाको विचारपूर्वक अपने मनसे नहीं हटा देते, तबतक हिन्दू धर्मकी यह सड़ायँध दूर नहीं हो सकती। अगर कोई मनमें मैल रखकर अछूतको छूता भी है, तो पापसे छुटकारा नहीं होता। अस्पृश्योंको स्पर्श करनेका तो अर्थ है जाति-बंधन जैसी स्वच्छ पद्धतिमें जो विष व्याप्त हो गया है, उसे निकाल फेंकना, ऊँच-नीचकी भावनाको भुला देना और उसके स्थानमें भ्रातृ-भावकी स्थापना करना। जब हम ऐसा करने लगेंगे, तभी अस्पृश्यता दूर की जा सकेगी। आज तो यह सड़ांध इतनी व्यापक हो गई है कि अन्त्यजोंमें भी परस्पर ऊँच-नीचकी भावनाने घर कर लिया है। हम ढेढ़ और भंगियोंको स्पर्श नहीं करते, इसका परिणाम यह हुआ है कि भंगियोंके मनमें भी अपनेको किसी-न-किसीसे बड़ा कहलवानेकी इच्छा होती है। इसे निकालना ही अस्पृश्यताकी भावना दूर करना है।