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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और जब कविने “अस्पृश्यता अतिरिक्त अंग" कहा, तब उसका भी यही अर्थ था कि यह हिन्दू धर्म के ऊपर एक थोपी गई चीज है।

कांग्रेस कार्यकर्त्ताओंको इस विषयमें तनिक भी असावधानी नहीं दिखलानी चाहिए। उन्हें जहाँ-कहीं भी ऊँच-नीचकी भावनाका कोई चिह्न दिखाई देता है, उन्हें वहाँ उसका मुकाबिला करना चाहिए। हम परम्परागत धर्मका लोप नहीं करना चाहते, किन्तु हम अज्ञानको मर्यादाका रूप भी नहीं देना चाहते। मर्यादाका स्वरूप स्वयं दुःख सहन करना है, दूसरेको दुःख देना नहीं। जो दूसरेको दुःख देते हैं, वे स्वेच्छाचारी हैं, संयमी नहीं। जो स्वर्ग प्राप्त करनेके लिए दूसरोंसे ऊँचा-नीचा काम करवाते हैं, वे संयम-धर्मका पालन नहीं करते। अस्पृश्यता और उसमें समाहित निर्दयताको दूर करने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि हम अस्पृश्योंकी सदा कुछ-न-कुछ सेवा करते रहें, उनके दुःखको समझें, उनके अनाथ बालकोंका पालन करें, उनकी झोंपड़ियों में जाकर उन्हें मदद पहुँचायें। यदि हम कोई शाला आदि चलाते हों, तो उनके बच्चोंको उसमें दाखिल करें और जो बच्चे हमारी देखरेखमें पढ़ रहे हैं, उन्हें भी इसकी आवश्यकता समझायें। हरएक गाँवमें हम उनके मुहल्लों में जायें और जाँच करके जिन बातोंकी वहाँ सुविधा न हो, वे सुविधाएँ वहाँ मुहैया करें। यदि इस प्रकार हम उनपर प्रेम करेंगे, तो उसका असर हमारे मनपर इतना अधिक पड़ सकता है कि हम रोज-रोज शुद्ध और पवित्र बनते चले जायेंगे और हमारे मनमें पड़ी हुई कठोरता निर्मल हो जायेगी। स्वराज्यका अर्थ ही है सबके दुःखमें भाग लेनेकी भावनाका निर्माण।

दर्शकों के लिए सुविधाएँ

आगामी कांग्रेस अधिवेशनमें कितनी ही बातोंमें इतना परिवर्तन होनेवाला है कि अगर लोग उसका मतलब ठीक-ठीक न समझें तो सम्भव है कि या तो लोग अप्रसन्न हो जायें या अव्यवस्था फैल जाये। महासभाकी सफलताका आधार जितना उसके कर्मचारियों और स्वयंसेवकोंपर है उतना ही लोगोंपर भी है। जैसा इन्तजाम सोचा गया है अगर लोग उसे पसन्द करें, नियमों का पालन करें तो काम ठीक-ठीक चलेगा। लेकिन अगर लोगोंने ऐसा न किया तो फल अच्छा हो ही नहीं सकता। इस बार दर्शकों की संख्या की हद बाँध दी गई है। एक तो यही बात कितने ही लोगोंको पसन्द नहीं आ रही है। फिर भी अगर लोग कुछ विचार करें तो उन्हें तुरन्त ही इसकी आवश्यकता समझमें आ सकती है। महासभा प्रजाका कार्य संचालन करनेवाली संस्था है। अब अगर केवल कार्य संचालनकी विधिको ही देखनेके लिए हजारों आदमी इकट्ठा होना चाहें तो उनकी व्यवस्था करना ही एक जबर्दस्त काम बन बैठे। इसलिए जब महासभा कार्य सम्पादन अथवा कार्य-योजना करती हो तब उसके देखनेकी इच्छा अधिक लोगोंको करनी ही न चाहिए।

इसका एक उपाय तो यह था कि दर्शक बिलकुल ही न लिये जायें। परन्तु अभी हालमें तो ऐसा नहीं हो सकता। किसी-किसी के आनेकी सुविधा करना आवश्यक था। इसलिए अधिक-से-अधिक तीन हजार दर्शकोंकी व्यवस्था करनेका प्रस्ताव स्वागतसमितिने किया। अब यह विचार शेष रहा कि किस तरहके तीन हजार आदमी आ