पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/३५९

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टिप्पणियाँ ३२७ यह बड़ा साहसपूर्ण और निर्भीक बयान है, और अगर इसमें कही गई बातें श्री त्यागीकी अपनी ही भावनाएँ व्यक्त करती हैं तो जिस समय उनको थप्पड़ लगाये गये थे उस समय के उनके आचरणमें साहसका अभाव देखनेवालोंको अपना विचार बदलनेकी जरूरत है। मामला बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे कैदियोंकी शारीरिक सुरक्षाका सवाल जुड़ा हुआ है। इसलिए इससे उठनेवाले सवालपर कुछ विस्तारपूर्वक विचार करना जरूरी है। मेरे विचारसे तो "मुंह बन्द रखने" और "मौनव्रती " का खिताब लेनेसे कोई फायदा नहीं है। जिस दिन कैदीको पीटा गया, उस दिन उसका स्पष्ट कर्त्तव्य था कि वह स्वेच्छासे अदालतमें रहने से इनकार कर देता । उसे तत्काल उसी स्थानपर उस तथाकथित जज द्वारा अपने मुकदमेकी सुनवाईकी कार्रवाईमें शरीक होनेसे इनकार कर देना चाहिए था । उसे इतना तो करना ही चाहिए था कि वह वहाँ बैठ जाता और इस तरह जाहिर कर देता कि वह उस न्यायालयके अधिकार क्षेत्रको स्वीकार नहीं करता । इस सबका मतलब शायद यह होता कि उसे और मारा जाता, और सजा तो ज्यादा दी ही जाती। लेकिन बलवानके अस्त्रके रूपमें अहिंसाके प्रयोगका मर्म ही यह कि अत्याचारके निवारणके लिए खुशी-खुशी कष्ट उठाया जाये और शारीरिक चोट सहनेके लिए तैयार रहा जाये । सामान्यतया इस आन्दोलनमें वारंट आनेपर अदालत में हाजिर होनेकी अपेक्षा की जाती है या उसकी छूट दी गई है क्योंकि इसमें वैसे आचरणकी पूर्वकल्पना नहीं की गई थी जैसा कि बुलन्दशहरके मजिस्ट्रेटने किया । लेकिन मजिस्ट्रेटके इस असामान्य आचरणका तकाजा है कि उसके निराकरण के लिए असामान्य उपाय भी अपनाया जाये । बयानमें अहिंसापर जोर दिया गया है, और यह ठीक ही किया गया है। लेकिन कोई मुझे गलत न समझे । अहिंसाकी प्रतिज्ञा हमपर यह बन्धन नहीं डालती कि कोई हमारा अपमान करे और हम उसमें सहयोग करें। इसलिए अहिंसाकी प्रतिज्ञा हमसे यह अपेक्षा नहीं रखती कि हम अधिकारियोंका आदेश मिलते ही चुपचाप पेटके बल रेंगने लगें, या नाकसे लकीरें खींचें, या ब्रिटिश झंडेको सलामी देने जायें या ऐसा कुछ करें जो हमारे लिए अपमानजनक हो। इसके विपरीत, हमने जिस धर्म और सिद्धान्तको अपनाया है, उसका तकाजा यह है कि भले ही हमें गोलीसे उड़ा दिया जाये, किन्तु हम ऐसा कोई काम नहीं करें। तो उदाहरण के तौर पर कह सकते हैं कि जब जलियाँवाला बागमें लोगोंपर गोलियाँ चलने लगीं तो उस समय वहाँसे भाग खड़े होना या कि पीठ दिखाना उनका कर्तव्य नहीं था । अगर उनतक अहिंसाका सन्देश पहुँचा होता तो उनसे अपेक्षा यही की जाती कि जब उनपर गोलियाँ चलने लगीं, उस समय वे सीना खोलकर आगे बढ़ते और इस विश्वास के साथ अपने प्राण उत्सर्ग कर देते कि उनका यह प्राणोत्सर्ग उनके देशको मुक्ति दिलायेगा । जो अहिंसाका व्रती है वह अत्याचारीकी शक्तिपर हँसता है और उसके वारका जवाब न देकर तथा अपने स्थानपर डटा रहकर उसे निष्प्रभ बना देता है। हम लोग जनरल डायरके हाथोंमें खिलौने बन गये, क्योंकि हमने वैसा ही आचरण किया जैसे आचरणकी वे आशा रखते थे। वे चाहते थे कि उनकी गोलियोंकी बौछारसे डरकर हम भाग Gandhi Heritage Portal