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नहीं करना चाहते हैं तो हमें यह बात उनसे स्पष्ट बता देनी चाहिए। इसी तरह संसारको यह बता देना भी हमारा कर्त्तव्य है कि हम अपने सिपाहियोंको फ्रांस और मेसोपोटामियाके मैदाने-जंगमें भेजना चाहते हैं या नहीं। जिन-जिन बातोंका राष्ट्रसे सम्बन्ध है उनके विषयमें अपने विचारोंको प्रकट करनेमें हमें डरनेकी कोई जरूरत नहीं।

लुधियानासे एक सज्जनने एक खासी प्रश्न-माला ही मुझे भेजी है, जिससे यह पता चलता है कि जन-मानस इस प्रश्नपर कितना उद्वेलित है। वे पूछते हैं:

१. भारतकी परराष्ट्र नीतिका संचालन केवल भारतके ही हितको मद्देनजर रखकर किया जायेगा या और किसी बातपर ध्यान रखकर?

दूसरी बातोंकी अपेक्षा स्वभावतः भारतके हितपर प्रधान रूपसे दृष्टि रखी जायेगी।

२. इंग्लैंड अथवा दूसरे देशोंके लिए लड़ाई लड़नेमें क्या भारतके धन-जनका उपयोग होना चाहिए?

हाँ, अगर भारत सन्धिकी शर्तोंके अनुसार दूसरे देशोंकी तरफसे लड़ाई लड़नेको बँधा हुआ हो।

३. क्या देशका कानून किसी विशेष सम्प्रदाय, संगठन या समाजके हितोंके अधीन माना जायेगा?

हरगिज नहीं। पर, इसी तरह देशका कानून ऐसा हो सकता है, जिसमें हमारे पड़ोसी मित्रराष्ट्रोंको सहायता देने की व्यवस्था हो―उसी तरह जिस तरह अगर आज हम स्वतन्त्र होते तो अपनी सामर्थ्य-भर टर्कीको धन-जनसे सहायता देना चाहते।

४. क्या किसी भी सरकारको किसी भी धर्म, जाति या वर्गकी रक्षाका साधन-स्वरूप होना चाहिए?

स्वराज्य-सरकारका नाम तो तभी सार्थक हो सकता है जब वह भारतमें वर्तमान धर्मों और उसमें बसनेवाली जातियोंकी रक्षा करे।

५. जब शास्त्र या शरीअत किसी बातका विधान करे और देशको आवश्यकता उसके विरुद्ध हो तब निपटारा कैसे होगा?

सवाल बेतुका है। किसी सम्प्रदायकी या उसके धर्मकी जो आवश्यकता है, वही देशकी आवश्यकता होगी।

६. क्या जमींदारों और उनकी रैयतका सम्बन्ध विरोधभावपर हो आधारित होना चाहिए?

मैं तो यही आशा करता हूँ कि स्वराज्यके अन्तर्गत उनका सम्बन्ध ऐसा नहीं होगा; उनके सम्बन्ध अच्छे होंगे और एक दूसरेके लिए लाभप्रद।

७. क्या देशभक्तिकी कोई मर्यादा भी होनी चाहिए; और अगर हाँ, तो कैसी?

देशभक्ति सदा ही ईश्वरभक्तिकी तुलनामें गौण है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २०-१०-१९२१