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१३७. क्या हिन्दू-मुस्लिम एकता बनावटी है?

‘मॉडर्न रिव्यू’ के ताजे अंकमें सम्पादकीय टिप्पणीमें हिन्दू-मुस्लिम एकताकी कुछ टीका की गई है, जिसका उत्तर देना जरूरी है। प्रतिभावान् सम्पादकने उस टिप्पणीका शीर्षक रखा है “बनावटी”। और स्पष्टतः वे इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि यह एकता सिर्फ नामके लिए ही है। लेकिन मेरे विचारसे यह बनावटी नहीं है; इतना ही नहीं बल्कि इसके विपरीत एक ऐसी वास्तविकता है जो बड़ी तेजीसे स्थायी रूप ग्रहण करती जा रही है। मैंने ‘यंग इंडिया’ के स्तम्भोंमें यह स्वीकार किया है कि यह अभी भी एक सुकुमार पौदा है, जिसकी बड़ी सावधानीसे देख-रेख करनेकी जरूरत है। लेकिन निश्चय ही यह कोई बनावटी या दिखावटी चीज नहीं है ―भले ही इसका कारण सिर्फ यही हो कि दोनों जातियाँ महसूस करती हैं कि आज वे एक ही विपत्तिसे घिरी हुई हैं।

दुर्भाग्यवश यह बात आज भी सत्य है कि साम्प्रदायिक भावनाका बड़ा जबरदस्त बोलबाला है, पारस्परिक अविश्वासकी भावना अब भी वर्तमान है। पुरानी यादें अभी भी जीवित हैं। यह आज भी सच है कि चुनावोंमें उम्मीदवारोंकी योग्यताका नहीं, धर्मका ही ज्यादा खयाल किया जाता है। लेकिन इन तथ्योंको स्वीकार करनेका मतलब है―इस एकताके मार्ग में आनेवाली कठिनाइयोंको स्वीकार करना। जब दोनों पक्ष उन कठिनाइयोंको जानते हैं और उनके बावजूद ईमानदारीके साथ एकता स्थापित करनेकी कोशिश कर रहे हैं, तब इस प्रयासको या सीमित सफलताको बनावटी कहना ठीक नहीं है।

यह कहना ठीक नहीं है कि खिलाफत संगठनोंने गो-हत्याके विरुद्ध जो अपील की, उसकी ओर मुसलमानोंने कोई ध्यान नहीं दिया और उसका उनपर कोई असर नहीं हुआ। अव्वल तो क्या यह एक बहुत ही उत्साहवर्धक बात नहीं है कि खिलाफत कार्यकर्ता, जो स्वयं मुसलमान हैं, गो-हत्या बन्द करवाने के लिए काम कर रहे हैं? दूसरे, मैं सम्पादक महोदयको विश्वास दिलाता हूँ कि यह अपील भारतके लगभग सभी हिस्सों में आश्चर्यजनक रूपसे सफल रही। क्या यह कोई छोटी बात है कि गोरक्षाका पूरा भार मुसलमान कार्यकर्त्ताओंने अपने सिर ले लिया है? क्या यह हिन्दुओंकी आत्माको आनन्दसे आलोड़ित कर देनेवाली बात नहीं थी कि सर्वश्री छोटानी और खत्रीने बम्बईमें अपने सहधर्मियोंके हाथोंसे सैकड़ों गौओंको बचाया और उन्हें कृतज्ञताके भावसे भरे हिन्दुओंको सौंप दिया?

यह बेशक सच है कि मौलाना मुहम्मद अली और मैं दोनों ही इस बातकी सावधानी रखते हैं कि “एक दूसरेकी दुखती रग न पकड़ें।” लेकिन पारस्परिक व्यवहारमें हमारी साफगोईका जवाब मुश्किलसे मिलेगा। सम्पादक महोदयने इस एकताको बड़ी निष्ठुरतापूर्वक "ताशका घर" कहा है, लेकिन हमारे लिए वह ऐसा नहीं है। हम तो उसे ऐसा ठोस तथ्य मानते हैं कि उसे अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए मर मिटनेको भी तैयार हैं। मैं पाठकोंको सूचित कर दूँ कि हमारी इन तमाम यात्राओंके दौरान हमारे