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क्या हिन्दू-मुस्लिम एकता बनावटी है?

बीच कभी कोई मनमुटाव नहीं हुआ है, कभी एक-दूसरेसे किसी तरहका दुराव-छिपाव करनेकी जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन उक्त सम्पादकीयमें सबसे क्रूर प्रहार निम्नलिखित वाक्यमें किया गया है:

अगर उनके भाषणोंके गूढ़ार्थकी ओर ध्यान दें तो यह बात आसानीसे स्पष्ट हो जायेगी कि उनमें से एक मुख्यतः दूर देश टर्कीमें खिलाफतकी दुर्दशाकी चिन्तासे परेशान है तो दूसरेका मुख्य लक्ष्य यहाँ भारतमें स्वराज्यको स्थापना है।

मेरा दावा है कि हम दोनोंके लिए खिलाफतका सवाल मुख्य सवाल है― मौलाना मुहम्मद अलीके लिए इसलिए कि यह उनका धर्म है, और मेरे लिए इस कारणसे कि खिलाफतके लिए अपना जीवन उत्सर्ग करके मैं मुसलमानोंके छुरेसे गौओंकी रक्षा सुनिश्चित करूँगा, जो मेरा धर्म है। हम दोनोंको स्वराज्य भी समान रूपसे प्यारा है, क्योंकि हम अपने-अपने धर्मकी रक्षा स्वराज्य द्वारा ही कर सकते हैं। यह शायद एक निम्न कोटिका विचार लगे, लेकिन इसमें कहीं कोई दुराव-छिपाव नहीं है। मेरे लेखे भारतकी शक्तिके सहारे खिलाफतकी प्रतिष्ठाको फिरसे कायम कर देना स्वराज्यकी प्राप्ति ही है। जैसे धर्मका आधार प्रेम है, वैसे ही हमारी मैत्रीका आधार भी स्नेह ही है। प्रेमके अधिकारके बलपर मैं मुसलमानोंकी मैत्री पाना चाहता हूँ। अगर एक समुदाय भी प्रेमके मार्गपर आग्रहपूर्वक डटा रहा तो एकता हमारे राष्ट्रीय जीवनमें एक निश्चित तथ्य बन जायेगी। मौलाना मुहम्मद अलीके बारेमें यह कहना अन्याय है कि वे ऐसी चुस्त उर्दू बोलते हैं जो अधिकांश बंगाली मुसलमानोंकी समझमें नहीं आती। मैं जानता हूँ कि वे अपने उर्दू भाषणोंको यथासम्भव अधिकसे-अधिक सरल रखनेकी कोशिश करते रहे हैं।

दुर्भाग्यसे यह सच है कि हमारे बीच अभी भी ऐसे हिन्दू और मुसलमान हैं जो एक-दूसरेके भयके कारण विदेशी शासनका रहना आवश्यक मानते हैं। और स्वराज्य-प्राप्तिमें जो विलम्ब हो रहा है, उसका यह कोई छोटा कारण नहीं है। अभीतक हम इस बातको स्पष्ट रूपसे नहीं समझ पाये हैं कि दोनों समुदायोंके आपसमें खुलकर लड़नेकी सम्भावना वर्तमान विदेशी शासनकी अपेक्षा एक छोटी बुराई है। और अगर हम महज ब्रिटिश सरकारके बीचमें खड़े रहने के कारण ही एक-दूसरेसे नहीं लड़ रहे हैं तो हमें जितनी जल्दी खुलकर लड़ लेनेको मुक्त कर दिया जाये, दोनों ही समुदायोंके पौरुषके लिए, धर्मके लिए, और देशके लिए उतना ही अच्छा होगा। अगर हम अपना आपा खोये बिना आपसमें लड़ें तो यह कोई नई बात नहीं होगी। इंग्लैंडमें अंग्रेज लोग इक्कीस वर्षांतक लगातार आपसमें लड़ते रहे और तभी वे झगड़ेसे छुट्टी पाकर शांतिपूर्ण कार्योंके लिए प्रवृत्त हुए। फ्रांसीसी लोग आपसमें ऐसी बर्बरता और नृशंसतासे लड़े, जिसे हालका कोई भी युद्ध मात नहीं कर सकता। और अमेरिकावालोंने भी अपना संघ कायम करनेसे पहले यही सब किया। हमें आपसमें लड़ाई होनेके भयसे पुंसत्वहीनतासे नहीं चिपके रहना चाहिए। ‘मॉडर्न रिव्यू’ के योग्य टिप्पणीकारको भी एकतासे उतना ही प्रेम है जितना कि हममें से किसीको; और वे कहते हैं कि आवश्यकता “आमूल-चूल परिवर्तनकी, सब-कुछको बदल देने और नये सिरेसे ही निर्माण करनेकी”