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श्वेत टोपियोंके विशाल समुद्रको देखा और देखा कि वहाँ खादीका ठीक-ठीक उपयोग किया जाता है। लेकिन यह देखकर मैं मुग्ध नहीं हुआ। सूरतके स्त्रीवर्गमें खादीका प्रचार बहुत कम है। वे सब अच्छी-खासी संख्यामें सभामें आईं, तथापि उनके शरीरोंपर मुझे विदेशी कपड़ेकी साड़ियाँ दिखाई दीं। फिर भी सूरत जिलेमें काफी अच्छा काम हुआ है। मुझे लगता है कि इस समय प्रतिस्पर्धा सूरत और खेड़ाके बीच है। इतना होनेपर भी मेरा विचार है कि सविनय अवज्ञा करने योग्य शक्ति सूरतके लोगोंमें नहीं आई है। सूरतके समस्त कार्यकर्त्ता पींजने, कातने और बुननेमें प्रवीण नहीं हैं। सूरतमें हजारों व्यक्तियोंको अभी इस बातका विश्वास नहीं हुआ है कि यदि वे जेल जायेंगे तो उनके पीछे उनके परिवारके लोग सार्वजनिक सहायताके बिना पींजने और कातनेके कामके द्वारा अपनी आजीविका प्राप्त कर सकेंगे।

लेकिन मैं यह मानता हूँ कि सूरत एक मासमें ऐसी तैयारी कर सकता है। सूरत जिलेमें लोग स्वदेशीकी कीमत समझ गये हैं; अब केवल स्वदेशीको सुदृढ़ आधारपर प्रतिष्ठित करनेकी आवश्यकता है। इसके लिए, मैं मानता हूँ कि सूरत जिलेके कार्यकर्ताओं को उसमें जुट जाना चाहिए। इस समय जो स्कूल चालू हैं उनमें कातने-बुननेको प्रमुखता दी जानी चाहिए। शिक्षकोंको भी इसी काममें जुट जाना चाहिए। सूतका प्रकार, नम्बर, मजबूती आदि पहचाननेवाले व्यक्ति एक नहीं अनेक मिलने चाहिए। जबतक हम खादीमय नहीं बनते, हमारी स्त्रियोंमें खादी पहननेका चाव पैदा नहीं हो जाता तबतक हम स्वराज्य प्राप्त करने योग्य नहीं बनते। क्योंकि तबतक भुखमरीका उपचार हमारे हाथ नहीं लगेगा, तबतक हम कंगालकी सेवा करने योग्य नहीं बनेंगे, और जबतक हम इस योग्य नहीं बन पाते तबतक हम सविनय अवज्ञा करनेके योग्य नहीं हैं।

सूरतमें एक सवाल पूछा गया था: “यदि स्त्री-पुरुष खादीका अधिक इस्तेमाल न करें, कातें नहीं तो क्या करना चाहिए?” इसका उत्तर सीधा है। क्या हम यह सवाल पूछनेवाले स्वयं भी कातते और बुनते हैं? यदि दूसरोंको समझाने-बुझानेमें कोई लाभ दिखाई न दे तो क्या हमें अपना प्रत्येक क्षण कातने, बुनने और पींजनेके कामको शास्त्रका रूप देने और उसमें कुशलता हासिल करनेमें नहीं लगाना चाहिए। हम यह मानकर क्यों न चलें कि अपनी परिपूर्णताके द्वारा हम दूसरोंको परिपूर्ण बना सकेंगे? बाड़ बाँधनेसे ही बेलें चढ़ती हैं। प्रत्येक जिलेमें हमें शुद्ध रूपसे पींजने, कातने और बुननेवाले सौ व्यक्ति भी नहीं मिलते, तब फिर स्वदेशी आन्दोलन जोरों पर नहीं है अथवा लोगोंको खादीमें दिलचस्पी नहीं है―यह कहना निरर्थक है। सौके बाद हम लाख पैदा कर सकेंगे। लेकिन यदि एक भी न हो तो? इसलिए सूरत जिलेके कार्यकर्त्ताओंको मेरी तो यह सलाह है कि वे स्वयं स्वदेशीमें पूर्णता प्राप्त करें और दूसरोंको भी इसमें परिपूर्ण बनायें; इतना तो वे इसी मासमें कर सकेंगे। इससे स्वदेशी खुद-ब-खुद प्रत्येक स्थानपर व्यापक हो जायेगी। और यदि प्रयत्न करनेपर भी हमें सफलता नहीं मिलती तो हम जानेंगे कि हम अभी योग्य नहीं बने हैं। हम जब कभी करें, काम तो हमें यही करना होगा।