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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

राँदेरमें असहयोग

मैं जब सूरतकी जाँच करने गया था तब मैं राँदेर भी हो आया था। मैं राँदेर इससे पहले भी हो आया हूँ और उस समय मैंने रौंदेरके आलस्यके सम्बन्ध में निराशा अभिव्यक्त की थी।[१] वह रांदेर अब बदल गया है। अब राँदेरमें सुन्दर राष्ट्रीय स्कूल है। रांदेरमें शराबकी दुकानें बन्द हो गई हैं। और जहाँ देखो वहीं पुरुषोंके शरीरपर खादीके वस्त्र दिखाई देते हैं। राँदेरमें कोई विदेशी कपड़ा बिलकुल नहीं बेच सकता, यदि ऐसा कहें तो ठीक होगा। राँदेरमें मुसलमानोंकी आबादी बहुत ज्यादा है। कितने ही करोड़पति मुसलमान वहाँ रहते हैं। उन्होंने लगभग ६०,००० रुपयेका विदेशी कपड़ा स्मर्ना भेज दिया है। धनिक मुसलमानोंके लड़के शराबकी दुकानोंपर धरना देते थे। इस तरह राँदेरने असहयोग आन्दोलनमें हर तरहसे प्रगति की है और यह समस्त प्रगति दो मासमें ही हुई, यदि ऐसा कहें तो अनुचित न होगा। मौलाना शौकत अलीके वहाँ जाने के बाद उत्साहकी यह लहर आई। राँदेरके लोगोंने अंगोरा कोषमें २५,००० रुपये दिये हैं; किन्तु यह बहुत छोटी रकम है। राँदेरकी शक्ति लाखों रुपये देनेकी है। और इसे लेकर मौलाना आजाद सोबानी साहबने उन्हें खूब फटकारा भी है। मुझे उम्मीद है कि राँदेरमें लोगोंमें देरसे जागृति आई है तथापि वे हर बातमें सूरत जिलेके लोगोंसे आगे बढ़ जायेंगे। प्रथम स्थान पानेके लिए राँदेरके प्रत्येक युवक और युवतीके हाथमें चरखा अथवा करघा होना ही चाहिए। जो धनवान हो वह यह श्रम न करे, ऐसा विचार तो हमारे मनमें आना ही नहीं चाहिए। इस विचारसे हम आलसी और दीन हो गये हैं। धनवानोंको भी लोकहितके लिए उद्यम करना चाहिए। औरंगजेबको कोई काम करनेकी जरूरत नहीं थी; तथापि वह टोपी सीता था। हम तो दरिद्र हो चुके हैं, इसलिए श्रम करना हमारा दोहरा फर्ज है। विदेशी वस्त्र अपनाकर हम गुलाम बन गये, अतएव स्वदेशीकी खातिर पींजने, कातने और बुननेमें श्रम करना हमारा दोहरा कर्त्तव्य है।

मिथ्या भ्रम

सूरत में एक भाईने मुझे दस रुपये दिये, सो यह कह कर कि ये रुपये मन्नत के रुपये हैं। मेरे नामकी मन्नत मानकर कोई व्यक्ति स्वस्थ हो गया था। ये रुपये सार्वजनिक उपयोगके लिए थे, इसलिए मैंने वे रुपये ले तो लिये लेकिन जिन्होंने मुझे ये रुपये दिये उन्हें मैंने फिर कभी ऐसे पैसे न लानेकी बात कही। हमारा देश बहुतसे वहमोंके तले कुचला हुआ पड़ा है। इनमें मेरे नामसे एक और जुड़ जाये यह बात मेरे लिए बहुत दुःखदायक होगी। वहममें इजाफा करके हम राष्ट्रकी उन्नति नहीं कर सकते। मन्नत माननेका रिवाज बहुत ही पुराना है। उसमें श्रद्धाका तत्त्व निहित है, इसलिए यह ठीक भले ही जान पड़े, लेकिन यह रिवाज प्रोत्साहन देने लायक नहीं है―ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए जहाँ-जहाँ लोग मेरे नामसे मन्नत मानते हों, वहाँ-वहाँ उन्हें ऐसा करनेसे रोका जाना चाहिए। मन्नत ऐसी वस्तु है कि उसे

 
  1. देखिए खण्ड २०, पृष्ठ ३५।