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चाहे जिसके नामसे प्रचलित किया जा सकता है। “मैं ठीक हो जाऊँगा तो फलाँको भेंट चढ़ाऊँगा,” ऐसी मन्नत माननेवाला कोई तो ठीक होगा ही और फिर वह बेचारा भेंट चढ़ायेगा ही। लेकिन ठीक होनेके साथ मन्नतका क्या सम्बन्ध हो सकता है? मन्नत माननेपर कोई स्वस्थ न हो और मुझसे कुछ जुर्माना ले सके तब तो ठीक होनेपर पैसा देनेकी बात मेरी समझमें आ सकती है और यदि ऐसा रिवाज प्रचलित हो जाये तो मैं दण्ड भरते-भरते ही अधमरा हो जाऊँ और लोकसेवाके कामका ही न रहूँ। लेकिन, चूँकि, जो लोग ठीक नहीं होंगे मैं उनको दण्ड भरनेके लिए तैयार नहीं हूँ, इसलिए ठीक होनेवाले भी मुझे भेंट न दें―ऐसी मेरी कामना है। मुझे तो यही उचित लगता है कि सार्वजनिक सभाके लिए भी इस तरह मिलनेवाले पैसोंको हमें अस्वीकार कर देना चाहिए।

जो बात मन्नतके सम्बन्धमें लागू होती है वहीं पूजाके सम्बन्धमें भी होती है। चरणस्पर्श, साष्टांग नमस्कार, आरती आदि क्रियाएँ भी त्याज्य हैं। लाखों व्यक्ति आरती उतारने और चरणस्पर्श करने में जुट जायें तो राष्ट्रका कितना समय नष्ट हो जाये? मैं तो दर्शन करनेवालोंसे त्रस्त हो जाता हूँ। यदि सब “दर्शन” करनेवाले साष्टांग प्रणाम करने लगें तब तो मैं पागल ही हो जाऊँ अथवा फिर मुझे नमस्कार करनेवालेकी ओर न देखनेका अभद्रतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए। इसलिए मेरी सलाह है कि हमें सीधे खड़े रहकर दूरसे नमस्कार अथवा सलाम करनेके अतिरिक्त अन्य विनय बरतने की आदत ही छोड़ देनी चाहिए। इससे जनताको कोई नुकसान न होगा। एक दूसरेके प्रति मान तो केवल मनकी भावना है। हम प्रसंग आनेपर ही आदरकी भावनाको अभिव्यक्ति दे सकते हैं। जहाँतक मेरा सवाल है मैं तो, यदि मैं तनिक भी योग्य होऊँ, एक ही पूजा चाहता हूँ; और वह यह है कि मैं जो-कुछ कहता हूँ, उसमें से जो भी बात जनताको पसन्द आये वह उसे ग्रहण करे और इस तरह स्वराज्यको प्राप्त करे। यही सच्ची और करने लायक पूजा है। दूसरी खोटी हो सकती है इसलिए त्याज्य है।

राष्ट्रीय स्कूलोंकी राष्ट्रीयता

राष्ट्रीय शालाओंकी राष्ट्रीयता किस वातमें है, इस विषयपर कुछ समय पहले एक सज्जनने मुझसे कुछ सवाल किये थे। उनमें से जानने योग्य प्रश्नोंके उत्तर नीचे दिये जाते हैं:

सवाल――जो लड़के राष्ट्रीय शिक्षा-मन्दिरोंसे शिक्षा प्राप्त कर चुकेंगे उन्हें अपने जीवनके लिए किसी व्यवसायकी खोजसे छुट्टी मिलेगी?

जवाब–―हाँ, मिलनी तो चाहिए। जिस विद्यासे इतनी भी मुक्ति नहीं मिलती वह विद्या ही नहीं है। विद्या उसीका नाम है जिससे त्रिविध――आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक――मुक्ति मिलती है। जिसे पहले प्रकारकी मुक्ति नहीं मिली उसे दूसरे प्रकारकी नहीं मिल सकती।

राष्ट्रीय संस्थाके सेवकके लिए क्या स्वार्थ-त्याग धर्म न होना चाहिए?

अवश्य होना चाहिए। मेरा तो यह विश्वास है कि जो स्वार्थ-त्याग नहीं कर सकता वह राष्ट्रका सेवक नहीं हो सकता।