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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हिन्दुस्तानपर इतना अधिक विश्वास है कि मैं तो ३१ दिसम्बरतक भी यही मानूँगा कि भारत हर हालत में स्वराज्य प्राप्त करके रहेगा। इस कारण मैं यह नहीं कह सकता कि जनवरीमें मैं क्या करूँगा। मुझे तो यही अच्छा मालूम होगा कि मैं जनवरीमें जनतासे विदा हो किसी शान्त स्थानमें जाकर रहूँ या स्वराज्य-तन्त्रके संगठनमें यथाशक्ति जनताका हाथ बटाऊँ। यदि हम किसी तरह इस वर्ष स्वराज्य प्राप्त न कर सकें तो मुझे अगले वर्ष जीवित रहना अच्छा नहीं लगेगा। ऐसी हालतमें मेरी आत्माको इतना अधिक कष्ट होगा कि उससे मेरे प्राण ही छूट जायेंगे―छूट जायें,यही मैं चाहूँगा।

मैंने हिन्दुस्तानके दुःखों―आर्थिक और नैतिक दोनों प्रकारके दुःखोंका इतना अनुभव किया है कि उनकी लपटोंसे अगर मैं जलकर भस्म नहीं हो गया हूँ तो उसका कारण केवल यही है कि मैं जनता द्वारा दी गई आशाके बलपर जी रहा हूँ। “आज हम आत्मशुद्ध होंगे” और “आज हमारे करोड़ों लोगोंके शरीरोंपर कुछ चमड़ी चढ़ेगी, इस आशाके, और केवल इस आशाके भरोसे हो मैं जीवित हूँ। इस आशाको पूर्ण करने के लिए एक साल काफी है, ऐसा मेरा खयाल। सितम्बरमें एक वर्षकी बातको मानने और कहनेवाला अकेला मैं ही एक व्यक्ति था।

दिसम्बरमें सब लोगोंने उस वचनको ग्रहण कर लिया। अब अगर कांग्रेस अपनी प्रतिज्ञाको पूरा न करे तो फिर मुझ जैसेकी क्या हालत होगी? अगर कांग्रेस दिवाला निकाल दे तो मेरा भी दिवाला निकला कहा जा सकता है। कांग्रेसकी आशापर मैंने हुंडी निकाल दी है और अगर वही उसे स्वीकार न करे, तो फिर? मेरी कामना है कि स्वराज्य न मिलनेसे जनवरीकी पहली तारीखको मुझे जो दुःख होगा वही सबको हो। सब लोगोंको धर्म और अनाजके अभावकी पीड़ा अवश्य होनी चाहिए।

इसपर एक मित्रने मुझे पूछा, इसका अर्थ क्या कायरता नहीं है? पर मुझे तो इसमें कायरता नहीं दिखाई देती; बल्कि करुणा प्रतिबिम्बित दिखाई देती है। इसमें मुझे व्यावहारिकता नजर आती है। जहाँ सेवाकी कद्र न हो वहाँ सेवा क्या करना? जिस जीवनसे लाभ नहीं वह जीना किस कामका? जीर्ण और जर्जर शरीरको बसन्त-मालती आदि औषध खिलाकर आकृतिमात्रको जबरदस्ती बनाये रखनेकी अपेक्षा अगर वह शरीर गंगाजलपर जीकर क्षीण हो जाये तो इसमें क्या बुराई है? आजकल जहाँतक मैं देखता हूँ तहाँतक मेरे मुँहसे “स्वदेशीका पालन करो और स्वराज्य लो” के अलावा और कोई बात निकल ही नहीं सकती। इसके सिवा मुझे दूसरा कुछ दिखाई ही न देता हो तो इसमें मेरा क्या दोष?

अब हम आखिरी सीढ़ीतक आ पहुचे हैं। यहाँ खूब अच्छी तरह पैर जमाये बिना―शक्ति प्राप्त किये बिना―आगे पैर उठाना मानो पीछे हटना है। मुझे याद है कि जब मैं सिंहगढ़के[१] पहाड़पर चढ़ रहा था तब एक मुकाम ऐसा आया कि जहाँसे मेरा कदम आगे बढ़ता ही नहीं था। वहाँ दम लेकर, बल प्राप्त करनेपर ही, मैं आगे बढ़ सका।

 
  1. महाराष्ट्रमें पूनाके समीप एक पहाड़ी किला।