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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खेलके लिए देनी चाहिए। खादीका उनके लिए एक-एक वस्त्र तो जरूर ही बनवा लेना चाहिए। लेकिन हाँ, खादीको जरूरतके मुताबिक ही उपयोगमें लाना है।

अगर बच्चे पटाखे माँगें तो उनसे कहना चाहिए कि पटाखे चलाने के दिन तो स्वराज्य मिलने और भुखमरी मिटनेपर ही आ सकते हैं। जबतक देशसे भुखमरी नहीं मिट जाती तबतक हम पटाखोंके लिए अपना पैसा खर्च नहीं कर सकते। लेकिन हमें इस दिन अपने यहाँका मैलापन अवश्य दूर करना चाहिए। इसके लिए अबतक हमारे पास जितने भी विदेशी कपड़े बच रहे हों उनको निकालकर दिवाली के दिन उनकी एक खासी होली कर डालनी चाहिए और इस तरह अपने मैलको जलता देखकर आनन्दित होना चाहिए।

लेकिन एक जैन-भाई लिखते हैं कि इस होलीमें बहुतसे जीवजन्तु जल जाते हैं। इस तरह जो हिंसा हो रही है, वह देखी नहीं जा सकती। इससे तो अगर हम विदेशी कपड़ोंको इकट्ठा करके रख छोड़ें तो क्या कुछ बुराई है? जैनियोंके वर्तमान दृष्टिकोण को देखते हुए यह सवाल ठीक ही है। छोटेसे-छोटा जन्तु भी अपने-जैसा ही है, और उस पर दया करना हमारा धर्म है, यह शाश्वत सत्य है। लेकिन ऐसा मानकर हम निश्चेष्ट नहीं बैठ सकते। हम चूल्हा तो जलाते ही हैं और मुर्दे भी जलाते हैं। जिस तरह नाश हिंसाका रूप है, उसी तरह उत्पत्ति भी हिंसाका रूप है। क्योंकि उत्पत्तिके बिना नाश नहीं और नाशके बिना उत्पत्ति नहीं हो सकती। अपने कियेका फल तो सबको भोगना ही पड़ता है। अगर हम इस बातको स्वीकार कर लें कि विदेशी कपड़ोंका व्यवहार त्याज्य है तो फिर उनके जलाने में बहुत ही थोड़ी हिंसा होते हुए भी जब दो हिंसाओंमें से किसी एकको पसन्द करनेका समय आता है, तब हमें अल्पतम हिंसाको स्वीकार करके आगे बढ़ना पड़ता है। अगर विदेशी कपड़े इकट्ठे करके एक तरफ डाल दिये जायें और उनमें दीमक लग जाये तो वहाँ नाश और उत्पत्तिकी क्रिया इतनी तेजी के साथ होने लगेगी कि होलीसे जितने जीवोंका नाश होता है उसकी बनिस्बत इसमें कई गुना ज्यादा नाश होगा। किसी आदमीको भूखों मरने देने की अपेक्षा उसका तुरन्त नाश कर देने में कम हिंसा है। इसीलिए मैंने यह बतलाया था कि हमारे समागममें रहनेवाले मनुष्यका अन्न-जल बन्द कर देना हमारी लड़ाईके नियमके विरुद्ध है। लेकिन इस विषयपर मैं अभी इससे ज्यादा बात नहीं करना चाहता; मैं फिर कभी समय मिलनेपर इसपर विस्तारसे चर्चा करूँगा। अभी तो इतना ही कहता हूँ कि विदेशी कपड़े जलाना हर एक दृष्टिसे कमसे-कम हिंसा है और यह हिन्दुस्तानके और इसलिए संसारके भलेके लिए एक बहुत ही जरूरी क्रिया है।

लेकिन दिवाली के दिनोंमें मुसलमान क्या करें? यह तो हिन्दुओंका त्यौहार है। इसीलिए मुसलमानोंसे मेरा कहना है कि वे भी इसमें दिलचस्पी लें। इस त्यौहारमें जो धर्म-विधि है वह तो हिन्दुओंकी ही रहेगी, लेकिन यह हिन्दुओंके उत्सवका दिन है, इसलिए इसमें मुसलमान भी शरीक हों और जितने परिमाणमें उसका उपयोग सारे देशके लिए किया जाता है उतने अंशमें तो वे ही नहीं बल्कि सभी जातियाँ शामिल हों। मुस्लिम नव वर्ष के अथवा पारसी नव वर्षके दिन अथवा ईसाई नव वर्षके दिन हमें इन मतावलम्बियोंके लिए शुभ कामना करनी चाहिए और इस अवसरपर ये