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लोग जो सार्वजनिक उत्सव करें उसमें भाग लेना चाहिए। एक दूसरेके सुख-दुःखमें शरीक होना तो हमारा काम ही है। इसीलिए मुझे उम्मीद है कि हिन्दुओंके इस त्यौहारपर सभी कौमें मिलकर स्वदेशीको हर तरहसे अपनायेंगी।

गीतामें चरखा

मैंने गत अंकमें कविवरके चरखा सम्बन्धी विचारोंके प्रत्युत्तरमें कुछ कहनेका[१] प्रयत्न किया था, उसमें मैंने यह बताया था कि मैं तो 'गीता' में भी चरखा ही देखता हूँ। अपनी इस बात के आधार के रूप में मैंने तीसरे अध्यायके कुछ श्लोकोंको उद्धृत किया। मैं यह भी जानता हूँ कि मैं उनका जो अर्थ करता हूँ वह ‘गीता’ की टीकाओंमें प्रत्यक्ष रूपसे देखने में नहीं आता। तथापि यह अर्थ मैंने आज ही नहीं निकाला है; अपितु १९०९ से मैं इसका यह अर्थ मानता आया हूँ। इन श्लोकोंका भावार्थ यह है कि जो यज्ञ किये बिना भोजन करता है वह चोरी करता है। इसमें यदि यज्ञके अर्थको समझ लें तो मैंने जो अर्थ किया है उसे स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं आयेगी। “यज्ञसे वर्षा होती है”[२] इसका सीधा-सादा अर्थ तो यह है कि यदि व्यक्ति श्रम करे तो पेड़ लगेगा और पेड़ वर्षामें सहायक होगा। लोककल्याणके अर्थके लिए किया गया शारीरिक श्रम ही सच्चा यज्ञ है। पशुओं अथवा फलादिका भोग देकर किया गया यज्ञ शुद्ध यज्ञ नहीं है। सार्वजनिक शुद्ध यज्ञों में खेती एक है। अपनी मेहनतसे उत्पन्न फसलमें से किसान थोड़ा ही ग्रहण करता है। उसकी मुख्य मेहनत जाने-अनजाने लोकसंग्रहके लिए है। सब उतनी मेहनत नहीं कर सकते, इसके लिए सर्दी और गर्मीको बरदाश्त कर सकनेवाले शरीरकी जरूरत है। लेकिन चरखा तो सब कोई चला सकते हैं। श्री राय-जैसे वैज्ञानिकने भी अत्यन्त सरस शब्दोंमें यह बताया है कि चरखेके द्वारा भले ही व्यक्ति अपना भरण-पोषण न कर सके परन्तु प्रजाका तो कर सकता है। और आज जब कि हिन्दुस्तान के नाशकी घड़ी आ गई है उस समय अगर कोई वस्तु इस स्थितिको सुधार सकती है तो वह केवल चरखा ही है और इसीलिए वह सच्चा यज्ञ है। “ऐसे प्रवर्तित चक्रका जो अनुसरण नहीं करता वह व्यक्ति केवल अपने ही लिए और इसलिए व्यर्थ जीता है।”[३] यह चक्र वर्तमान युगमें चरखा ही है। जब यह श्लोक रचा गया था तब भले ही महाकवि और ऋषिके मनमें चरखेकी कल्पना न रही हो परन्तु कवि तो समयकी परिधिमें नहीं बँधता, उसकी रचना अनन्त कालके लिए होती है और इसीलिए उनके काव्यसे ऐसे अर्थ भी सिद्ध होते हैं जो उसकी अपनी कल्पनामें नहीं होते। यही उसके काव्यकी पूर्णता और विशेषता है। सिद्धान्त रूपमें ऐसे वचन शाश्वत होते हैं, उनके फल अनेक हैं और मेरा यह नम्र अभिप्राय है कि अमूल्य अमृत वचनोंमें से हमें अनेक सुन्दर अर्थ-फल निकालनेका अधिकार है। कवि और किंकर, मालिक और मजदूर, सेठ और नौकर, सेठानी और दासी सबको लोक-कल्याणके अर्थ श्रम अवश्य करना चाहिए। करोड़पति भले अपने लिए शरीर-श्रम न करे, चरखा न चलाये

  1. देखिए “महान प्रहरी”, १३-१०-१९२१।
  2. भगवद्गीता, ३-१४।
  3. भगवद्गीता, ३-१६।