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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

के खिलाफ तरह-तरहके अभियान चला देनेसे प्रकट होता है कि सरकारको यह अच्छी नहीं लगती। दूसरे शब्दोंमें, सरकार भारतकी आर्थिक स्वतन्त्रता सहन नहीं कर सकती। क्या इन लक्षणोंको देखते हुए हमें स्वदेशी कार्यक्रमपर अमल करनेके लिए कृतसंकल्प नहीं हो जाना चाहिए?

फौजी लोग

अली-बन्धुओं और उनके साथियोंपर चलाये गये मुकदमेका हाल और एक ज्ञापन[१] बैरकोंमें पहुँच चुका है, और फौजी लोग यह पूछ रहे हैं कि अगर वे नौकरी छोड़ देंगे तो उनका भरण-पोषण कैसे होगा। एक पत्रलेखक उनकी ओरसे पूछता है कि स्वराज्यके अन्तर्गत उनका क्या होगा। जहाँतक पहली जिज्ञासाकी बात है कार्य-समितिने उन्हें रास्ता दिखा दिया है। हर सिपाही आसानीसे बुनकर और धुनिया बन सकता है। धुननेके लिए बाहोंमें ताकतकी जरूरत है जो हर सिपाहीमें होगी ही। और बम्बईमें तो कोई भी धुनिया प्रतिदिन दो से तीन रुपयोंके बीच कमा लेता है। पंजाबके बहुतसे बुनकरोंने करघे छोड़ दिये हैं और किराये के टट्टू बनकर तलवारें उठा ली हैं। मैं करघेको ऐसी तलवारसे लाख दर्जा श्रेयस्कर मानता हूँ। जिस सिपाहीको यह निर्णय करनेका अधिकार नहीं हो कि उसे कब और किन लोगों अथवा किस जातिके खिलाफ तलवार उठानी पड़ेगी, उसके धन्धेको मैं खरा धन्धा नहीं कह सकता। सिपाहियोंकी सेवाका उपयोग हमारी रक्षा करनेकी अपेक्षा हमें गुलाम बनाने के लिए ही अधिक किया गया है, जब कि आज कोई भी बुनकर अपने देशका सच्चा मुक्तिदाता, और इस तरह, सच्चा सिपाही बन सकता है।

एक मित्रका सुझाव है कि कांग्रेसने जो बुनाई और धुनाईकी सलाह दी है, उसमें खेती भी जोड़ देनी चाहिए। यह तात्कालिक उपाय नहीं हो सकता, क्योंकि खेती आसानीसे नहीं शुरू की जा सकती और इसमें पुँजीकी भी जरूरत है और इस कारण यह काम हमारे उद्देश्यकी दृष्टिसे अव्यवहार्य ही हो जाता है।

स्वराज्यके अन्तर्गत क्या होगा; इसका जवाब आसान है। तब सिपाही किराये के टट्टू नहीं होंगे। वे सिर्फ बाहरी दुश्मनोंसे बचाव और जानमालकी हिफाजतके लिए राष्ट्रीय सैनिक बनकर रहेंगे। राष्ट्रके मामलोंको दिशा देने में उनकी एक अपनी आवाज होगी। और निश्चय ही तब उन्हें निरीह तुर्कों या अरबोंका गला काटने के लिए देशसे बाहर पश्चिमें नहीं भेजा जायेगा और न उतने ही निरीह चीनियों और बर्मियोंका गला काटने के लिए पूर्वमें ही भेजा जायेगा।

श्री त्यागीके बचाव में

श्री भगवानदास[२] इस आन्दोलनको काफी गहरी दिलचस्पीसे देखते रहे हैं। उन्होंने श्री त्यागीके बचावमें निम्नलिखित विद्वत्तापूर्ण पत्र[३] लिखा है।

 
  1. कराची-प्रस्तावपर; देखिए “एक ज्ञापन”, ४-१०-१९२१।
  2. १८६६-१९५८; लेखक, दार्शनिक; काशी विद्यापीठ, बनारसके आचार्य।
  3. यहाँ नहीं दिया जा रहा है।