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टिप्पणियाँ

 

पाठक ध्यान देंगे कि पिछले हफ्ते श्री त्यागीका बयान देखते ही मैंने कुछ भूल-सुधार कर ली थी।[१] मैंने आगाही इसलिए जरूरी समझी कि मुझे ऐसा अनुभव है कि हमारा मौन कमजोरीका परिणाम हुआ करता है। दुर्भाग्यवश यह इक्के-दुक्के लोगोंतक ही सीमित नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय दोष बन गया है। जब मैंने श्री त्यागीका उदाहरण दिया तो उसका मतलब इस दोषका सिर्फ सबसे ताजा नमूना पेश करना था। जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ, मोपलोंका पागलपन तो बुरा है ही, लेकिन दूसरे लोग उस पागलपनके आगे झुक गये, यह और भी बुरा है। वे जोर-जबर-दस्तीसे मजबूर होकर अपना मजहब बदलनेकी कहानी कहनेको जीवित ही क्यों रहें? कोई दूसरा व्यक्ति तो हमारे लिए हमारे धर्मकी रक्षा नहीं कर सकता। हममें से हरएक स्त्री या पुरुषको अपना रक्षक आप होना चाहिए। जिस ईश्वरने हमें धर्म दिया है, उसने उसकी रक्षा करनेकी भी शक्ति हमें दी है। हर व्यक्तिमें प्रहार करनेकी शक्ति नहीं है; परन्तु चाहे लूला-लंगड़ा हो, या अन्धा-गूंगा हो, मर मिटनेकी शक्ति तो सभीमें है। मजिस्ट्रेटने श्री त्यागीपर जो कायरतापूर्ण प्रहार करवाया, वह उनकी मर्दानगीपर प्रहार था और इस तरह धर्मपर। उन्हें कुछ-न-कुछ करके. चाहे उसे अवज्ञा कहिए या अविनय या उद्धतता―मजिस्ट्रेटको और भी तमाचे लगवाने के लिए ललकारना चाहिए था और “एक शान्तिपूर्ण दृश्य” उपस्थित कर देना चाहिए था। यह सबसे सच्चा असहयोग होता। लेकिन मैं श्री त्यागीको या किसीको भी दोष नहीं देता। हमारी मर्दानगीको तो जानबूझकर खत्म किया गया है। हमें इस तरह बेबस कर दिया गया है कि हमें सब-कुछ चुपचाप सहना ही पड़ता है। अहिंसाके आधुनिक स्वरूपके प्रणेताके नाते मुझे इस बातकी बहुत फिक्र है कि अहिंसाकी आड़में हम अपनी कमजोरियोंको ही देवत्वका गुण न मानने लगें। जबतक हम इस क्षेत्रमें कुछ निश्चित काम नहीं कर लेते तबतक मैं इस बाबत लोगोंपर बधाइयोंकी वर्षा न करना ही अच्छा मानूँगा। जहाँतक बाकीका सवाल है, सत्ताका भय और आतंक त्यागनेकी दृष्टिसे हमने जो प्रगति की है, उसके लिए तो हमें हर तरहसे प्रसन्न होना चाहिए। असहयोग कमजोरों और बलवानों, दोनोंके हाथमें एक मजबूत शस्त्र देता है। और जबतक हम यह महसूस करते हैं कि हम किसी अपमानके आगे झुक गये तो वह हमारी अपनी कमजोरी थी, और हमने हर बार इस कमजोरीपर विजय पानेकी कोशिश की तबतक हमें अपने आचरणपर लज्जित नहीं होना चाहिए।

बाबू भगवानदास यह जाननेको बहुत उत्सुक हैं कि भयसे अधिक बुरा और क्या हो सकता था। मेरे मनमें तब कायरताकी बात थी।

इस सम्बन्ध में एक बात काफी दिलचस्प लगती है। बाबू भगवानदासने श्री त्यागीका वक्तव्य तो देखा था, किन्तु उन्हें मेरे द्वारा भूल-सुधारकी कोई जानकारी नहीं थी। इसलिए मैंने जल्दबाजीमें श्री त्यागीके मामलेमें जो कमजोरी देखी, उसकी भर्त्सनाके खिलाफ उन्होंने प्रतिवाद करके ठीक ही किया; किन्तु दूसरी ओर मौलाना मुहम्मद

  1. देखिए “टिप्पणियों”, २०-१०-१९२१ का उप-शीर्षक “मजिस्ट्रेटको क्षमा-याचना और “अभियुक्तका बयान”।