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१५१. जेलसे लिखा एक पत्र

जेल
कराची
१८ अक्तूबर, १९२१

प्यारे बापू,

स्वभावतः, मैं आपको एक लम्बे अर्सेसे लिखनेकी सोचता रहा हूँ, लेकिन किसी-न-किसी वजहसे हर दिन टालता रहा। लेकिन, वाल्टेयरमें मेरी गिरफ्तारी-पर मेरी पत्नीने जो-कुछ किया और उसके बाद उसकी जो गतिविधि रही, उसके बारेमें अखबारोंमें आपकी कलमसे लिखी बातें पढ़ने के बाद आपको पत्र लिखनेकी इच्छा किसी तरह दवा नहीं सका। आप खुद ही सार्वजनिक रूपसे स्वीकार कर चुके हैं कि मेरे लिए पत्र लिखना कितना मुश्किल है। इसलिए, भले ही बहुत थोड़े शब्दोंमें सही, किन्तु आपको यह बताये बिना नहीं रह सकता कि आपने मेरे दिलको कितनी गहराईतक छू लिया है। शायद मैं आपको एक बार बता चुका हूँ कि हमारा “प्रेम-विवाह” हुआ था, जिसका भारतमें आम चलन नहीं है। इसके अतिरिक्त भी हमारे विवाहित जीवनका हर साल मेरी पत्नीको मेरी अधिकाधिक निकटकी संगिनी बनाता गया, और नजरबन्दी तथा कारावासके पिछले कुछ घटनापूर्ण वर्षोंको उसने जिस साहसके साथ झेला है, और १९१९ में हमारी रिहाईके बाद हम जिन “खतरों” में रहते आये हैं उनका उसने जिस हिम्मतके साथ सामना किया है, उसके कारण वह मुझे और भी प्यारी हो गई है। लेकिन, मैं पको सच बता रहा हूँ कि उस दिन जबउस छोटेसे रेलवे पुलिस स्टेशनके अन्दर आकर उसने बड़ी हिम्मत और बेपर-वाहीसे मुझसे अपनी और लड़कियोंकी फिक्र न करनेको कहा और अलविदा कहकर, कुल एक-दो मिनटमें ही, वृढ़ताके साथ गाड़ीकी ओर चल पड़ी तबसे वह मुझको इतनी प्यारी लगने लगी है, जिसका आधा भी पहले कभी नहीं लगी थी। खैर, मैंने आपके लेखोंमें अपना या हम दोनों “भाइयों” का उल्लेख एकाधिक बार पाया है। आपने सबमें हमारी तारीफ ही की है, और मुझमें ऐसा कोई बनावटीपन नहीं है कि मैं यह बात आपसे छिपा लूँ कि ऐसी हर चर्चासे मुझे बहुत खुशी हुई और मेरा दिल जोरोंसे धड़कने लगा। मैंने कई बार हमारे लिए आपकी “हिमायत” या “सफाई” भी अखबारोंमें पढ़ी है। इन लेखोंमें आपने हमारे आलोचकोंके आक्रमणका जोरदार विरोध किया है और ऐसे समयमें हमारा हौसला बढ़ाया जब हम अपना आपा खोने लगे थे। लेकिन हमारी तारीफ अथवा हिमायतके रूपमें लिखी गई आपकी किसी बातसे मेरे दिलको