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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उतनी खुशी नहीं हुई जितनी मेरी अजीज और बहादुर पत्नीके बार-बार जिक्रसे हुई। असलियत तो यह है कि इसने मेरे दिलको इस कदर छू लिया है कि आपने उसकी तारीफमें जो भरमानेवाली बातें कही है, उनके लिए आपको माफी देनेके लिए भी तैयार हो गया हूँ और उनपर आपसे रश्क न करनेके लिए भी तैयार हूँ। खैर। मैं सिर्फ यही उम्मीद करता हूँ कि यह मुश्किल इम्तिहान जल्दी पूरा हो जायेगा और जिससे वह अपना काम करनेके लिए फिरसे आजाद हो जाये और आपसे और भी ज्यादा भरमानेवाली तारीफें पाये।

हाँ, पता नहीं, आपने तैरसीके नाम मेरा वह खत देखा है या नहीं जिसमें मैंने मजिस्ट्रेट द्वारा की जानेवाली तहकीकातके चौथे दिनके वाकयातका ब्यौरा दिया है। आप जानते हैं कि "क्रॉनिकल" तकने मेरी तकरीरकी कितनी गलत रिपोर्ट दी थी; इसलिए आप शायद यह समझ सकते हैं कि ऐसे "नौसिखिये" अखबारनवीसोंकी रिपोर्टोंकी बिनापर किन्हीं मामलों और वाकयातके बारेमें अपनी राय कायम कर लेना कितना खतरनाक है, जो शार्टहैंड बिल्कुल नहीं जानते और जब बात बहुत रोचक और आकर्षक रूप धारण कर लेती है तब उसे देखने-सुनने में इस कदर मशगूल हो जाते हैं कि अपने अखबारके लिए उसे लिख लेनेके कामकी उपेक्षा कर देते हैं। जिन दिनों में जेलमें नहीं था उन दिनों न तो इतना वक्त मेरे पास था और न इतना सन्न हो मुझमें था कि अपनी तकरीरोंकी रिपोर्टोको गलतियाँ हर रोज सुधारता चलता। अब चूँकि जेलकी जिन्दगीमें मुझे ज्यादा अवकाश मिलता है और कैदीका जीवन बितानेकी तैयारी करनेके लिए अधिक सबकी आदत डालना लाजमी हो गया है, इसलिए में इन गलतियोंको बिना ठीक किये नहीं रह सकता। लेकिन लोगोंको भी सिर्फ इसीलिए छपनेवाली हर बातको आँख मूंदकर सच नहीं समझ लेना चाहिए। जब मैंने अदालतकी चौथे दिनकी कार्यवाहीको बिलकुल नाकाफी, गलत-सलत और पूरी तरह गुमराह करनेवाली रिपोर्ट पढ़ी तो मुझे लगा कि कुछ लोग तो हमें जरूर ही गलत समझेंगे, और तैरसीको लिखे पत्रमें मैंने जहाँ इस बातका जिक्र किया था कि "क्रॉनिकल" ने किस तरह मेरे बयानकी रिपोर्ट देने में दर्जनों जगह पूरेके-पूरे जुमले और पैरे ऊलजलूल ढंगसे धर दिये हैं, वहाँ वह हालात भी बयान किये थे जिनकी वजहसे अदालतकी शानमें "गुस्ताखी" की नौबत आई। लेकिन दरअसल हम "शरारत" पर "आमादा" नहीं थे। तीन दिनतक अदालतकी कार्यवाही बड़े आरामसे चलती रही और तीनों दिन अगर सरकारी वकीलकी निगाहमें हम इसीलिए गुनहगार ठहरे हों कि हमने "अपना बचाव" किया तो अलबत्ता अदालत भी हमपर "गुस्ताखी" करनेका इल्जाम लगा सकती है। लेकिन कठिनाई मौलाना हुसैन अहमद साहबके बयानसे शुरू हुई। अदालतने किसी योग्य दुभाषियेको बुलानेसे इनकार कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि