पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/३९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६३
जेलसे लिखा एक पत्र

किचलू उर्दूमें बोलनेका आग्रह करते रहे, जब कि मजिस्ट्रेट दूसरे साथी-मुजरिमके बयानसे शुरुआत करना चाहता था, क्योंकि उसका कहना था कि उसके लिए दुभाषियेकी जरूरत नहीं पड़ेगी। अगले दिन माहौल बिलकुल बदल गया, हालाँकि हमें इस बातका बिलकुल इल्म नहीं है कि रात-भरमें ऐसी कौन-सी बात हो गई, जिसने फिजाँको बिलकुल बदल दिया। "गुस्ताखी" अदालतने की। किचलूको बयान देते समय हर नये जुमलेपर टोका गया, और मजिस्ट्रेटने उनका बयान लिखने से इनकार कर दिया, हालाँकि उनका बयान बिलकुल मेरे ही बयानकी तरह था। फिर वह शंकराचार्यसे इस बातकी जिद करने लगा कि अगर उनको कोई बयान देना है तो वे खड़े होकर दें, लेकिन शंकराचार्यने कह दिया कि धार्मिक कारणोंसे वे ऐसा नहीं कर सकते। इसी बातने मुझे मजबूर कर दिया कि में बिना गरम हुए मजिस्ट्रेटकी बातकी मुखालफत करूँ। मैंने उससे पूछा कि हिन्दुओंके बीच जिस धर्माधिकारी व्यक्तिका स्थान शंकराचार्यकी तरह ऊँचा हो, क्या आप उससे अदालतके अदन-कायदे मनवानेकी तब भी जिद करेंगे, जब ऐसा करनेमें उस व्यक्तिको उस कानूनको अवहेलना करनी पड़े जिसे वह देवी कानून मानता है। आप जिस कौमके हैं उस कौमके पुरखोंका भारतमें पुराना इतिहास यह है कि वे महज उस कानूनको अवहेलना होने के डरसे, जिसे वे देवी कानून मानते थे, अपनी जन्मभूमि छोड़कर यहाँ आ बसे थे। ब्रिटिश अदालतका अदब कायम रखने में आपको इतना ज्यादा विश्वास है। क्या आप खुदाको नहीं मानते? अखबारमें सिर्फ मेरा यही प्रश्न-सूचक वाक्य छपा: "क्या आप खुदाको नहीं मानते?" मेरी आरजू-मिन्नतके जवाबमें उसने किया यह कि मुझे गन्देसे गन्दे लहजेमें बैठ जानेको हुक्म दिया। मैंने बैठने से इनकार जरूर किया, लेकिन यह कभी नहीं कहा कि "देखता हूँ, आप क्या कर लेते हैं।" मैंने यह कहा था कि आप ताकतका इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन ऐसा कोई कानून नहीं है जो किसी मुजरिमको बैठने के लिए मजबूर कर सके। बेचारे शौकतने मजिस्ट्रेटकी काफी मान-मनौती की, और यह गुजारिश की कि वह बयान देते वक्त उसे टोके नहीं, क्योंकि इससे वह बिलकुल गड़बड़ा जाता है। लेकिन स्पष्ट ही मजिस्ट्रेट इस बातपर बिलकुल आमादा था कि पिछले दिनके मेरे बयानकी तरहकी कोई बात रिकार्डमें न लिखी जाये या उन सहयोग करनेवाले और दूसरे लोगों द्वारा सुनी भी जाये जो अदालतमें मौजूद थे। जब मौलाना हुसैन अहमद साहबने अपना बयान शुरू किया तो न तो उसने अदालतके दुभाषियेसे उसका तर्जुमा कराया (जो पहले ही यह मान चुका था कि उसमें इस्लामी कानूनकी व्याख्याका तर्जुमा कर सकनेकी लियाकत नहीं है), न इस बातकी जरा-सी भी कोशिश की कि मौलाना जो-कुछ कह रहे थे उसे समझे। लिखा कुछ भी नहीं गया लेकिन इतना सब काफी नहीं था। यों तो उसने जो उपेक्षाका रुख अपना