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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दूसरेसे इतने समयतक विमुख रही हैं कि मुसलमान अनजाने लगभग यही समझने लगे थे कि भारत उनका घर नहीं। खिलाफत के खतरेने उनकी आँखें खोल दी हैं। हिन्दू इस तथ्यको ध्यान में रखें और अपने मुसलमान भाइयोंकी मदद करके अपनी भी मदद करें और हमेशा के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकताको पक्का करें। दोनोंके लिए सौभाग्यकी बात है कि -- उन्नावमें जैसा भी हो -- दूसरी अनेक जगहों में निश्चय ही ऐसा नहीं है। वहाँ हिन्दू खिलाफत आन्दोलनके लिए भरसक पूरी सहायता कर रहे हैं।

तमिल बहनोंके बारेमें कुछ और

एक दक्षिण भारतीय वकील लिखते हैं :

तमिल प्रान्त में खादीका उतना व्यापक व्यवहार नहीं जितना और प्रान्तोंमें है -- मुख्यतः इसलिए कि स्त्रियाँ उसे नहीं पहनतीं। इसी कारण चरखा भी उतना नजर नहीं आता। सधवाएँ यहाँ सादा सफेद कपड़ा नहीं पहन सकतीं। वे केवल रंगीन साड़ी ही पहन सकती हैं। पहले समय में महिलाओं में केवल सूतीका ही चलन था । अब जो बिलकुल ही गरीब हैं, उनके सिवा सभीने सूती साड़ियोंका त्याग कर दिया है और दैनिक व्यवहारमें रेशमी साड़ियाँ ही आती हैं। रेशमी साड़ियाँ पहले यहीं कोरनाडु ( मायावरमके निकट) में बनती थीं, बाद में कांजीवरम् में बनने लगीं; ये साड़ियाँ देशी रंगोंमें रंगी जाती थीं। उनका मूल्य रु० १० से ३० तक होता था। उन्हें कभी-कभी ही पहना जाता था। लेकिन इधर कुछ अरसे से बाजारमें बंगलौरी साड़ियोंका ही बोल-बाला है जो जर्मन या अंग्रेजी रंगोंसे रंगी जाती हैं और सबसे घटिया भी लगभग रु० ५० की होती है। इसका निर्धन ब्राह्मण गृहस्थपर बुरा प्रभाव पड़ता है, खासकर इसलिए कि उसे अपने परिवारके सभी सदस्योंको केवल रेशम ही पहनाना पड़ता है और चूँकि दैनिक व्यवहारमें भी रेशमी साड़ीका ही उपयोग होता है इसलिए उसे रेशमी साड़ियाँ काफी संख्या में खरीदनी पड़ती हैं। विवाहके अवसरपर भेंट देने लायक साड़ीका कमसे कम मूल्य ही १०० रु० से ऊपर होता है। कितने ही संभ्रान्त परिवारोंकी इसी कारण जर्जर दशा हो जाती है। यह है नाशकारी प्रथा जो ब्राह्मणोंतक ही सीमित थीं, अब दूसरे वर्गोंमें भी फैल गई है।

खर्च के प्रश्नके अलावा आराम और सुविधाकी दृष्टिसे भी यह बात विचारणीय है। रेशममें पसीना नहीं मरता और वह भारी भी है, इसे पहनकर काम करना या खाना पकाना तो मानो मौत ही है। यहाँ सालमें दो-एक महीनोंको छोड़कर हमेशा गर्मी ही रहती है। एक और विचित्र और गन्दी आदत है : लोग बहुमूल्य साड़ियोंको इस डरसे कि कहीं उनका रंग बिगड़ न जाये और सलवटें न पड़ जाये, धोते नहीं हैं। पसीना और दुर्गन्ध दोनों असह्य होते हैं ।

बरबादीको खाईपर खड़े बहुतेरे गृहस्थ आपका उपकार मानेंगे यदि आप मितव्ययिता, सादगी और आराम वापस ला सकें।