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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वे लोग तो खैर इसके अलावा और कुछ जानते ही नहीं। लेकिन हम तो अज्ञानका ऐसा कोई बहाना नहीं कर सकते। हमने तो पूरी तरह सोच-समझकर ईश्वर और मनुष्यकी साक्षीमें यह प्रतिज्ञा की है कि जिस प्रणालीको नष्ट करने के लिए हम हरचन्द कोशिश कर रहे हैं, उस प्रणालीसे किसी भी तरहसे सम्बद्ध किसी भी व्यक्तिको हम कोई चोट नहीं पहुँचायेंगे। इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि अपने ही शरीरकी तरह युवराजके शरीरकी सुरक्षाके लिए भी हम हर सम्भव सावधानी बरतें।

हम जानते हैं कि हमारी सारी कोशिशके बावजूद ऐसे कुछ लोग अवश्य होंगे जो किसी भी भय या आशासे अथवा अपनी मर्जीसे विभिन्न समारोहोंमें शामिल होना चाहेंगे। उन्हें भी अपनी इच्छाके अनुसार चलनेका उतना ही अधिकार है, जितना हमें है। हम जो स्वतन्त्रता प्राप्त करना चाहते हैं, हम जिसका उपभोग करना चाहते हैं, उस स्वतन्त्रताकी कसौटी ही यह है। तो यह मदान्ध नौकरशाही हमें जितना परेशान करना चाहे, करती रहे, पर हम अधिकसे-अधिक संयमसे काम लेते रहें। और अगर हम नौकरशाही द्वारा आयोजित तमाशोंसे बिल्कुल अलग रहकर अपने इस दृढ़ निश्चयका परिचय देंगे कि हमारा उससे कोई सरोकार नहीं है, और साथ ही यदि हम अपनेसे भिन्न मत रखनेवालोंके प्रति सहिष्णुता बरतेंगे तो इससे हमारा उद्देश्य बहुत कारगर ढंगसे आगे बढ़ेगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २७-१०-१९२१
 

१५३.असहयोगका रहस्य

इसमें कोई शक नहीं कि असहयोग एक ऐसी तालीम है जिससे लोकमत विकसित और एक स्पष्ट स्वरूप पाता जा रहा है। और ज्यों ही उसका इतना संगठन हुआ कि उसके द्वारा कारगर कदम उठाया जा सके, त्यों ही हमें स्वराज्य मिल जायेगा। हिंसात्मक वायुमण्डलमें लोकमतका संगठन नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार वे लोग जिन्हें मोपलोंने बलपूर्वक कलमा पढ़ाया, मुसलमान नहीं माने जा सकते, उसी प्रकार वे लोग भी, जो अपनेको शौकिया या मजबूरीसे असहयोगी कहते हैं, सच्चे असहयोगी नहीं हैं। वे सहायक नहीं, उलटे बाधक हैं। अगर लोगोंपर हम अपनी इच्छा जबर्दस्ती थोपेंगे तो हमारा यह जुल्म इस नौकरशाहीके अंगभूत मुट्ठी -भर अंग्रेजोंके जुल्मसे भी खराब होगा। इन अंग्रेजोंका जोर-जुल्म तो मुट्ठी-भर लोगोंका जुल्म है, जो विरोधके बीच अपने अस्तित्वकी रक्षा के लिए लड़ रहे हैं। परन्तु हमारा जुल्म तो बहुसंख्यक लोगों द्वारा थोपा गया होगा और इसलिए वह उस जुल्मसे ज्यादा बुरा और वाकई ज्यादा अधर्ममय होगा। अतएव हमें अपने आन्दोलनमें से हर किस्मके दबावको बिल्कुल निकाल देना चाहिए। अगर हम लोग केवल मुट्ठी-भर ही हों, परन्तु हों असहयोगके सिद्धान्तके पक्के पाबन्द, तो हमें विरोधी मतको अपने पक्षमें करते हुए चाहे प्राण गँवाने पड़ें किन्तु हम फिर भी सचमुच अपने उद्देश्यकी रक्षा कर सकेंगे और