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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो पाप है, चाहे यह दूसरा नौकर उतना ही वफादार भी क्यों न हो। जो अर्थशास्त्र नैतिकता और मानवकी भावनाका खयाल नहीं करता वह एक ऐसे मोमके पुतलेकी तरह है जो दिखाई तो सजीव देता हो, परन्तु जो होता निर्जीव है। जब-जब ऐसा आनबानका अवसर उपस्थित हुआ है तब-तब अर्थशास्त्रके ऐसे नये बने नियम व्यवहारमें टूटे हैं; और जो राष्ट्र या व्यक्ति उन्हें अपने व्यवहारके मूलभूत सिद्धान्त मानेंगे, उनका अवश्य सर्वनाश होगा। मुसलमान लोग अपनी धर्म-विधिके अनुसार पकाये खानेको ज्यादा कीमत देकर लेते हैं और हिन्दू लोग उस भोजनको नहीं ग्रहण करते जो शुद्ध और पवित्र विधिसे न बनाया गया हो। दोनोंके इस संयममें जरूर कुछ अच्छाई है। हम जब इंग्लैंड और जापानका सस्ता कपड़ा खरीदने लगे, तभी चौपट हो गये। अब हममें तभी जान आ सकती है जब हम उसी कपड़ेको जिसे हमारे पड़ोसियोंने अपनी झोंपड़ियोंमें तैयार किया है, खरीदना धर्मतः आवश्यक समझें।

२३. क्या ‘धरना देना’ अहिंसात्मक है?

अधिकांश जगह वह अवश्य ही शान्तिमय रहा है। धरना देनेमें हिंसाका आश्रय लेना अत्यन्त आसान बात तो है; परन्तु स्वयंसेवकोंने सब जगह बहुत ही संयम से काम लिया है।

२४. जब कि देश में कितने ही लोग अर्धनग्न रह रहे हैं और अगले जाड़ेके खयाल-मात्रसे थरथर काँप रहे हैं, तब क्या आप कपड़ोंकी होलियाँ जलानेमें (आध्यात्मिक अथवा अन्य प्रकारकी) अच्छाई लोगोंको बताते हैं?

हाँ, बताता हूँ; क्योंकि मैं मानता हूँ कि उनकी अर्धनग्नताका कारण हम भारतीयों द्वारा जीवनके इस मूलभूत सिद्धान्तकी अक्षम्य अवहेलना करना कि “जिस प्रकार हम अपने ही घरका पका खाना खाते हैं उसी प्रकार हमें अपने ही हाथके कते सूतका कपड़ा भी पहनना चाहिए।” अगर मैं उन्हें अपनी विदेशी उतारन दूँ तो इससे उनकी व्यथाकी अवधि और भी बढ़ जायेगी। लेकिन इन होलियोंसे उत्पन्न होनेवाली गरमी अगले जाड़ेतक ठहरेगी और अगर ये होलियाँ बराबर तबतक जलती ही रहीं जबतक कपड़ेका अन्तिम टुकड़ा नहीं जल जाता, तो वह गरमी चिरस्थायी हो जायेगी और हम देखेंगे कि आगे आनेवाले हर जाड़े में यह देश क्रमशः अधिकाधिक शक्तिमान होता जायेगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २७-१०-१९२१