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१५४. हिन्दू शास्त्रोंमें अस्पृश्यता

ऊपर जो पत्र[१] दिया गया है मैं उसे प्रसन्नतापूर्वक प्रकाशित करता हूँ ताकि ‘यंग इंडिया’ के पाठकोंको दूसरे पक्षकी जानकारी भी मिल सके। श्री अय्यर एक विद्वान् वकील हैं, और उनसे अपेक्षा तो यह है कि अपने पत्रमें उन्होंने मेरी स्थितिकी जानकारीका जैसा परिचय दिया है उससे वह ज्यादा अच्छा होना चाहिए था। मद्रास प्रान्तमें मेरे जो भाषण हुए उनमें मैंने इस बातपर जोर दिया था कि अस्पृश्योंके विरुद्ध विवेकहीन और निर्दयतापूर्ण द्वेषभाव दिखाया जाता है। हमारी माताएँ और बहनें जब ‘अस्पृश्य’ होती हैं तब हम उनसे जैसा व्यवहार करते हैं क्या हम वैसा ही व्यवहार “अस्पृश्य” पंचमोंसे भी करते हैं? मैं अब भी यह स्वीकार करता हूँ कि मैंने पण्डितों की तरह शास्त्रोंका अध्ययन नहीं किया है किन्तु मैं हिन्दूधर्मके रहस्यको समझनेका दावा करता हूँ। और मैं पूर्ण विनम्रतासे किन्तु पूरी शक्तिसे कहना चाहता हूँ कि अस्पृश्यता अपने उस रूपमें जिसमें हम उसे कायम रखते आये हैं और रख रहे हैं, हिन्दूधर्मके लिए एक गम्भीर कलंक है। वह ‘स्मृतियों’ के अवांछनीय दुरुपयोगकी सूचक है और सबके प्रति प्रेम-भाव, जो हिन्दूधर्मका आधार है, उसके विपरीत है। इसलिए मैं अस्पृश्यताके वर्तमान रूपको राक्षसी कृत्य कहनेमें नहीं झिझकता। मैं श्री अय्यरसे कहता हूँ कि वे अपनी ईश्वर-प्रदत्त प्रतिभाका उपयोग अपने बहिष्कृत देशवासियोंकी सेवामें करें और मैं उन्हें विश्वास दिलाता हूँ कि हिन्दू शास्त्रोंमें मानवजीवनका जो अर्थ मुझे दिखाई दिया है वही उनको भी दिखाई देगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २७-१०--१९२१

१५५. पत्र: मथुरादास त्रिकमजीको

२७ अक्तूबर, १९२१

यदि मैंने षड्रिपुओंको जीत ही लिया हो तो मैं जो करता हूँ उसे लोग अनुभव-वाक्य मानकर स्वीकार कर लेंगे। लेकिन स्वयं मुझे ऐसी विजय प्राप्त करनेकी कोई प्रतीति नहीं है। अभी क्या मैंने सर्पादिके भयको छोड़ दिया है? नहीं छोड़ा है; यह बात मेरी आत्माकी मूच्छितावस्थाकी द्योतक है।

[गुजरातीसे]
बापुनी प्रसादी
  1. यह पत्र, जो यंग इंडियाके २०-१०-१९२१ और २७-१०-१९२१ के अंकोंमें प्रकाशित हुआ था, आर० कृष्णस्वामी अस्थरने अस्पृश्यताका समर्थन करते हुए लिखा था। उन्होंने मनुस्मृति और अन्य शास्त्रों का उद्धरण देते हुए अपनी बात सिद्ध करनेकी कोशिश की थी। पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है।