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बोध बनाम अक्षरज्ञान

करनेवाली पुस्तकसे क्या मतलब? इसीलिए मैंने गरासिया और काठियों आदिके सम्बन्ध में यह लिखा था कि उन्हें अपनी उन्नतिके लिए अक्षरज्ञानकी अपेक्षा समझ-शक्तिके विकासकी अधिक जरूरत है।

इसपर इस गोहेल गरासिया भाईने मुझे लिखा है, “अगर अक्षरज्ञानको अपेक्षा समझकी ज्यादा जरूरत है तो यह भी आप ही दीजिए। हममें शराबका और अफीमका व्यसन है, आलस्य है। दूसरी जातियोंकी भाँति हम अन्य प्रपंचोंसे पीड़ित नहीं हैं। आप आत्मरक्षाकी शक्तिको बढ़ाना चाहते हैं, सो तो हमें विरासतमें मिली है। हमें अगर अपनी शक्तिकी प्रतीति हो जाये तो हम फिरसे हिन्दुस्तानके सच्चे सेवक बन जायें। हम बनना तो चाहते हैं। कैसे बनें सो कहिए?” पत्रका सार इतना ही है।

मैं छः महीने के बाद इस प्रश्नका उत्तर देने बैठा हूँ, इसलिए मेरा कार्य आसान हो गया है क्योंकि मैंने इन छ: महीनोंमें तो बहुत लिखा है। अगर उसे समझ-बूझके साथ पढ़ा गया हो तो अब एक भी अक्षर लिखना बाकी नहीं बचा; और अगर कोई मेरे सब लेखोंको एक साथ पढ़ जाये तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि वह यह टीका कर सकता है कि “यह व्यक्ति तो दिन-प्रतिदिन एक ही बात करता है। शायद यह इसीलिए ‘नवजीवन’ का सम्पादक बना है?” टीकाकारकी यह टीका बिल्कुल सही है। मैंने ‘नवजीवन’ के सम्पादन कार्यका यह बोझ अपने ऊपर एक ही सत्यको कहने के लिए लिया है।

काठियावाड़में मेरों और बघेरोंके प्रदेशमें जन्म लेनेके कारण मैं काठियाओं, मेरों और बघेरोंके गुण-दोषोंसे भलीभाँति परिचित हूँ। वे लोग ही अगर सच्चे हो जायें तो वे सौराष्ट्रको तो जाग्रत कर ही सकते हैं और हिन्दकी भी भारी सेवा कर सकते हैं। मुलु माणेक और जोधा माणेक तो अपने तुच्छ अधिकारोंके लिए हाथोंके टूट जानेपर पाँवसे बन्दूक दाग कर लड़े थे, ऐसी दन्तकथा है। उनमें कमालकी बहादुरी थी। उनके गीत आज भी गाये जाते हैं सो इसलिए नहीं कि उनका निशाना अचूक था बल्कि इसलिए कि उनमें शत्रुके बहुसंख्यक दलके सामने टिके रहनेकी और मौतको अपनी जेबमें डालकर लड़नेकी शक्ति थी। यूनानमें तो थर्मापोलीकी एक ही लड़ाई हुई लेकिन बरड़ामें[१] तो मुझे स्थान-स्थानपर ऐसी लड़ाइयाँ दिखाई देती हैं।

काठी राजपूतोंसे मैं एक ही आशा रखता हूँ। आपके पूर्वज तो गरासके[२] लिए लड़ते हुए मरे। आप अपने उत्तराधिकारको सुशोभित करना चाहते हैं तो हिन्दुस्तान जैसे गरासके लिए मारनेका विचार छोड़कर मरनेकी तैयारी कर शुद्ध क्षत्रिय बनें। मारना क्षत्रियका धर्म नहीं है। जो क्षत्रिय अपनेसे दुर्बलको मारता है वह क्षत्रिय नहीं, हत्यारा है। जो दुर्बलकी रक्षा करनेके लिए बलवानसे भिड़ता है और उसे मारता है, उसका मारना क्षम्य होता है। लेकिन जो बलवानको न मारकर दुर्बलकी रक्षा करते अपने प्राण दे देता है, वह सच्चा क्षत्रिय है। मरना―पलायन न करना―उसका धर्म है। दूसरेके मनमें मरणका भय उत्पन्न करना उसका धर्म नहीं है। उसका

  1. सौराष्ट्र में।
  2. राज्यकी ओरसे राजवंशियोंको उनके निर्वाहके लिए दी गई जमीन।