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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

धर्म तो स्वयं भयका त्याग करना है। इसीलिए वह रक्षा करनेको तैयार होता है। रक्षा करनेवाले के लिए कुश्ती सीखनेकी अपेक्षा मरण-भयको छोड़नेकी ज्यादा जरूरत है। सिरसे पैरतक शस्त्रोंसे लैस और बख्तरसे सुरक्षित किसी राक्षसके विरुद्ध एक निःशस्त्र काठी युवक क्या करेगा? वह उसके हाथमें एक गरीब लड़कीको जाने देगा या उस राक्षसके हाथों मृत्युका आलिंगनकर, लड़कीको ईश्वरके भरोसे छोड़, उस लड़कीको भी निःशस्त्र-बलका पाठ पढ़ाता जायेगा? सीताकी दृष्टि भगवे वस्त्र पहने हुए दो बालकोंपर जाकर क्यों टिक गई और उसने राक्षसों-जैसे विशालकाय मनुष्योंका अनादर क्यों किया? सीताको रामके आत्मबलकी प्रतीति हो गई थी। वह भोली कुमारिका उस समय यह कहाँ जानती थी कि उनमें शिवका धनुष तोड़ डालनेकी शक्ति है।

लेकिन रामकी भाँति ऐसी रक्षा कौन कर सकता है? वह व्यक्ति जो ब्रह्मचारी है, जिसने निद्राको जीत लिया है, जो अल्पाहारी है, जो निर्व्यसनी है, सत्यवादी है, अल्पभाषी है और जो निरन्तर पर दुःखके विचारसे दुःखी होता है तथा जो अन्य लोगोंको न मिल सके ऐसी वस्तुका त्याग करनेकी इच्छा रखता है और सदा अपरिग्रही रहता है। इतना दयाभाव रखने के लिए कुछ लोगोंको दयाका सागर बनना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ कि इसके लिए अगर राजपुत चाहें तो ज्यादा जल्दी तैयार हो सकते हैं। लेकिन इस समय तो हिन्दुस्तान में एक ही वर्ण है और वह नया वर्ण है—गुलामोंका।

जबतक हिन्दुस्तान गुलाम है, तबतक क्षत्रियको न तो सोना अच्छा लग सकता है, न उठना-बैठना और पहनना ही अच्छा लग सकता है। जिसे ऐसा क्षत्रिय बनना हो वह बन सकता है। चारों वर्णों और समस्त धर्मावलम्बियोंको अपनी रक्षा करनेके लिए तो क्षत्रिय बन ही जाना चाहिए। क्षत्रिय जाति दूसरोंके दुःखोंको उठा लेती है, दूसरोंकी भी रक्षा करती है। हम सब क्षत्रिय नहीं बन सकते; कुछ तो दुर्बल ही रहेंगे। हमारी इस लड़ाई में मानो क्षत्रियोंकी जन-गणना होनेवाली है। हमारा हिसाब देनेका दिन आ गया है। लेकिन जो चरखा चलाना नहीं जानता वह कभी भी इस युगके भारतको मुक्त करनेवाला क्षत्रिय नहीं बन सकता।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ३०-१०-१९२१