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नहीं रख सकते तबतक स्वराज्य कैसे मिलेगा? यह विचार सुन्दर प्रतीत होता है; लेकिन इसमें कार्य-कारण जैसा सम्बन्ध नहीं है। स्वदेशी और ब्रह्मचर्य दो अलग विषय हैं। खादी विदेशी कपड़ेकी तुलनामें पवित्र है। चरोतरका गेहूँ अमेरिकाके गेहूँसे पवित्र है लेकिन जिस तरह चरोतरका गेहूँ खानेवाला व्यक्ति पाखण्डी और विषयी हो सकता है उसी तरह पवित्र खादी पहननेवाला भी हो सकता है। स्वदेशीमें अथवा खादीमें इससे अधिक पवित्रताका आरोप करके हम नुकसान उठायेंगे। यदि खादीकी पोशाक सम्पूर्णताकी परिचायक मानी जाने लगेगी तो स्वदेशीका प्रचार करना ही असम्भव हो जायेगा। अच्छे-बुरे, रोगी-निरोगी, पुण्यवान-पापी सबमें खादी पहनने जितनी पवित्रता तो आनी ही चाहिए। इसमें देशभक्ति, देशवासीके प्रति―पड़ौसीके प्रति―दयाधर्म और मित्रभाव भी आ जाता है, इससे इसे भी मैंने आत्मशुद्धि माना है। और यदि करोड़ों लोग यह अल्प आत्मशुद्धि करें तो उनके सम्मिलित पुण्यका परिमाण इतना अधिक हो जायेगा कि हम अपना जन्मसिद्ध अधिकार, जिसे हम आज खो बैठे हैं, वापस प्राप्त कर लेंगे। इस समय तो हम पूर्ण-अपूर्ण स्वराज्य प्राप्त करनेके लिए जी-जानसे जुटे हुए हैं, इसे प्राप्त करनेके लिए स्वदेशी आवश्यक है और पर्याप्त है।

ब्रह्मचर्यका पालन थोड़े लोग ही करेंगे। सब इसका पालन करें, यह अपेक्षणीय है। सब इसका पालन करें तो हम विश्व-साम्राज्य लेकर बैठ जायें। यह हमारा धर्म है लेकिन हम उसे स्वदेशी के साथ जोड़कर― स्वदेशी, जो अत्यन्त सहल है―ब्रह्मचर्य जितना दुरूह न बना दें।

इस तरह दोनों में निहित अन्तरको कहने और सुननेके बाद मैं कहना चाहूँगा कि हर तरहका कार्य करनेवाले स्त्री-पुरुष स्वराज्य प्राप्तितक ब्रह्मचर्यका पालन करें। हम कार्य करनेवाले लोग इतने कम हैं, गहरे उतरनेपर मालूम होगा कि हम गरीब भी इतने ज्यादा हैं कि हमारे पास न तो सन्तानोत्पत्तिके लिए अवकाश है और न उसके लालन-पालनकी शक्ति ही है। रोगीको सन्तानोत्पत्ति हो, इससे किसीको क्या लाभ? क्षयसे पीड़ित व्यक्ति सन्तान पैदा करे तो यह कितना अत्याचार है? तो फिर गुलाम सन्ततिके बारेमें तो कहना ही क्या? सबसे ज्यादा दुःखकी बात तो यह है कि हम विषयोंके उपभोगका, रतिभोगका विचार करते समय सन्तानका विचार ही नहीं करते। हम अपने विषयोंके इतने अधिक गुलाम बन गये हैं कि हम विवेकको छोड़ बैठे हैं। सन्तानोत्पत्ति तो हमारी स्वच्छन्दताका परिणाम है। यह कोई किसी संयमीके स्वल्प मात्रा में अपने गृहस्थ-धर्मके पालनका ऐसा योग्य अथवा पवित्र फल नहीं है जिसकी कि उसने इच्छा की हो; अधिकतर तो यह फल अनपेक्षित और दुःखद ही होता है।

मेरा इतना दृढ़ विश्वास है कि जिन्होंने जनताकी सेवामें अपना जीवन समर्पित कर दिया है, उन मतवालोंके लिए विषय भोगकी अपेक्षा करना सम्भव ही नहीं है। वे इतना समय निकाल भी कहाँसे सकते हैं? इसी आशासे मैं स्वराज्य-यज्ञमें यथाशक्ति बलिदान कर रहा हूँ। यदि जनताके हाथमें सत्ता देना ही अन्तिम उद्देश्य हो तो मुझे विश्वास है कि मैं ऐसा बालक नहीं हूँ जो उस खिलौनेको प्राप्त करनेके मिथ्या प्रयासमें पडूँ। मेरी मान्यता है कि आजके कार्यकर्ता यदि इस स्थूल स्वतन्त्रताको प्राप्त करनेके