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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उद्देश्यको लेकर काम करेंगे तो देखेंगे कि जबतक वे सत्यवादी, दयावान, शूरवीर, निडर, सरल और स्वदेशी नहीं बनते तबतक स्वराज्य नहीं मिलेगा। इस प्रयासमें कुछेक लोगोंको रत्नचिन्तामणि मिले बिना न रहेगी। इस प्रयासमें प्रजाकी ऊर्ध्वगति है, ऐसा जानकर ही मैं इसमें पड़ा हुआ हूँ और शान्त हूँ। इसलिए मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि स्वयंसेवक व स्वयंसेविकाएँ स्वराज्य प्राप्त होने तक ब्रह्मचर्यका व्रत लें। लेकिन अपने मनको अथवा हृदयको धोखा देकर न लें, मेरे कहनेसे भी न लें, अपितु यदि वे बहुत सोच-समझकर और दृढ़ होकर यह व्रत लेंगे तो इसका पालन कर सकेंगे और फल प्राप्त करेंगे।

राम और रहीम

एक सिख भाई लिखते हैं कि स्वदेशीकी बात ठीक है; परन्तु आप तो स्वयं ईश्वरके माननेवाले हैं। फिर आप ईश्वरका नाम पहले क्यों नहीं रखते? सब लोगोंको अपने खुदा, ईश्वर, राम अथवा वे जिस नामसे अपने परमात्माको पहचानते हों, उस नामकी माला जपने के लिए क्यों नहीं कहते? यह बात सच है, मैं ऐसी बात उनसे नहीं कहता। परन्तु मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि केवल शब्दोंके उच्चारण मात्रसे स्वर्ग नहीं मिल सकता। शब्दोच्चार के लिए योग्यताकी जरूरत है। हम जबतक विदेशी वस्त्र पहनते हैं तबतक, मेरा खयाल है कि हम हिन्दुस्तानमें रहकर ईश्वरका या खुदाका नाम जपनेके लायक नहीं हो सकते। अगर एक आदमी दूसरेके गलेपर छुरी फेरते हुए रामनाम जपता है तो वह रामको लज्जित करता है। इसी प्रकार एक भारतीय के हाथके कते सूतसे बने कपड़ेको छोड़कर सैकड़ों कोस दूरसे अपने कपड़े मँगाना अपने भाईके गलेपर छुरी चलाना है। वह व्यक्ति भी ईश्वरका नाम लेने योग्य नहीं है। इस प्रसंगमें चरखेके महत्त्वको में पहले ही बता चुका हूँ। चरखा कातना एक ऐसी शान्तिमय विधि है कि हम अपने हाथको सूतके साथ मिलाते हुए अपने हृदयको ईश्वरके नाम के साथ जोड़ सकते हैं। ईश्वर-भक्तिको भी, ब्रह्मचर्यकी तरह, स्वदेशीके साथ नहीं जोड़ा जा सकता। ईश्वरका नाम न लेनेवाला मनुष्य भी अगर स्वदेशीका पालन करे तो वह तो उसका फल पाता ही है; पर अगर नास्तिक भी स्वदेशीका पालन करे तो वह भी उसका उतना ही फल प्राप्त कर सकता है तथा खुदको और देशको उन्नत कर सकता है। जिसके मनमें ईश्वरका नाम है, जिसके हृदय में ईश्वर निवास करता है, वह स्वयं तो बहुत लाभ उठाता ही है; देशको भी लाभ पहुँचाता है। स्वदेशी हमें ईश्वरकी ओर ले जानेवाली शक्ति है, क्योंकि वह हमें ऊपरकी ओर ले जाती है। उक्त मित्रके सुझावपर मैंने इतना लिखा सो यह बतलानेके लिए कि अगर हम ईश्वरकी आराधना नहीं करते तो हम अपने युद्धको धर्म-युद्ध नहीं कह सकेंगे। हम लोग तो एक दूसरेके धर्मकी रक्षा करनेके हेतुसे लड़ रहे हैं, हमें तो ईश्वरका नाम भूलना ही न चाहिए। उसकी रटन तो हमारे हृदयमें नित्य होती रहनी चाहिए। हमारे हृदयमें जितनी बार धड़कन होती है उतनी बार अर्थात् निरन्तर हमें उसका चिन्तन करते रहना चाहिए। इसमें स्वदेशी सहायक है; परन्तु दोनों एक बात नहीं हैं। स्वदेशी देहका धर्म है; ईश्वर स्तवन आत्माका गुण है।