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“पीपल्स फेअर”

‘पीपल्स फेअर’ का अर्थ है ‘मेला’। दो पारसी बहनें लिखती हैं कि माननीय युवराजके आगमनके समय मेला लगाया जानेवाला है। कुछ लोग समझते हैं कि उसमें हम लोग शरीक हो सकते हैं। उनका कहना है कि युवराजके सम्मान-समारम्भमें शरीक न होनेकी बात तो समझमें आ सकती है लेकिन नगरपालिकाके खर्चसे जो आतिशबाजी, मेले आदि हों उनमें क्यों न जायें? यह दलील ठीक नहीं है। क्योंकि अगर रुपयेकी ही बात हो तो युवराजका जो सम्मान किया जानेवाला है वह हमारे ही खर्चसे होगा। सरकार जो रुपया खर्च करती है वह तो हमारा ही है। हमारी दलील तो यह है कि यदि लोगोंका रुपया उनकी सलाह से खर्च नहीं किया जाता है तो उससे किये जानेवाले मेलोंमें हमें शरीक नहीं होना चाहिए। अगर कोई लुटेरा अपने खर्चसे हमें भोज दे तो क्या उसमें हमें जाना चाहिए? इसी प्रकार युवराजका सम्मान और उनके सम्मान में आयोजित किये जानेवाले मेलेमें मुझे तो कोई फर्क नहीं दिखाई देता। यदि एक त्यागनेके लायक है, तो दोनोंको ही त्यागना चाहिए।

चरखा और बुद्धि

कविवर श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुरने अपने लेखमें एक वाक्य लिखा है[१], जिसकी जगह-जगहसे मेरे पास आलोचनाएँ आ रही हैं। वह वाक्य यह है कि चरखा कातने-वालेकी बुद्धि कुंठित हो जाती है। इसकी टीका-टिप्पणियोंको मैं प्रकाशित करना नहीं चाहता क्योंकि कविवरका यह वाक्य एक अनुमान-मात्र है। हिन्दुस्तानमें आज लाखों चरखे चल रहे हैं। उनमें वकील, डाक्टर और तत्त्वज्ञानी लोग भी हैं और मुझे मालूम है कि ऐसे लोग तमाम प्रान्तों में हैं। इन लोगोंके अनुभवका सबूत कविवरके अनुमानके खिलाफ है। बस, इतना ही कह देना काफी है कि मैंने सैकड़ों विद्यार्थियोंसे पूछा है और उन्होंने चरखको बुद्धिका विरोधक नहीं पाया है। डाक्टरों और वकीलोंका अनुभव भी यही कहता है। बंगालके एक प्रख्यात उपन्यास लेखक मेरे पास सिर्फ अपना अनुभव बयान करनेके लिए ही आये थे। उन्होंने मुझे बताया कि ‘मैं नियमित रूपसे चरखा कातता हूँ और उससे मेरी उपन्यास लिखनेकी शक्तिका विकास ही हुआ है।’ इन सब प्रान्तोंसे जो-कुछ सिद्ध हो सकता है उससे अधिक मैं सिद्ध करना ही नहीं चाहता। मैं तो सिर्फ यही बताना चाहता हूँ कि बुद्धिमान मनुष्यकी बुद्धि हर तरहका शारीरिक कार्य करनेसे अधिक तेज होती है और अगर वह काम लोकोपयोगी हो तो पुनीत भी होती है। ऐसे शारीरिक कार्यों में चरखा अच्छा, हलका और मधुर कार्य होनेके कारण उत्तम है और हिन्दुस्तानकी वर्तमान अवस्थामें तो वह कल्पद्रुमके समान है।

“इस्माइली फिरका जमातसे अपील”

इस शीर्षकके अन्तर्गत लिखते हुए श्री फिदाहुसैन दाऊदभाई पूनावाला कहते हैं कि खोजा, बोरा और अन्य सब मुसलमानोंका यह फर्ज है कि वे स्वदेशीमें पूरा-पूरा सहयोग दें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो इसके लिए उन्हें भविष्यमें कष्ट सहन करना

  1. अक्तूवरके मॉडर्न रिव्यू में।