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१६३. पत्र: मथुरादास त्रिकमजीको

१ नवम्बर, १९२१

प्रातःकालका समय है। तुम्हारा पत्र मेरे पास पड़ा हुआ है। तुम्हें अपने लिखेपर माफी माँगनेकी क्या जरूरत है?

मेरे लेख अथवा मेरे व्यवहारमें अनजाने ही अहंकारकी गन्ध हो सकती है। मैं नहीं जानता कि कैसे, लेकिन ‘क्लेश’ शब्दका अर्थ यहाँ कुछ अलग ही करना चाहिए। परदुःखसे मुझे व्यथा होती है। करुणाका गुण ही यह होता है कि जब भी व्यक्ति दूसरोंके दुःखोंको मिटाने में असमर्थ होता है तब-तब वह असह्य पीड़ाका अनुभव करता है। मनकी दशाके वर्णनमें तर्क-शास्त्रकी बात लागू नहीं होती। मैंने अपनी भावनाओंका[१] हूबहू चित्रण किया है। ये भावनाएँ दोषपूर्ण हो सकती हैं। लेकिन यह लिखते समय मेरे मनमें मोक्षकी भावना भी थी―मोक्षकी भावना उस समय कोई मन्द न थी लेकिन सच्ची बात यह है कि मैं मोक्षार्थी हूँ, किन्तु इस जन्ममें आज भी मोक्षके लायक नहीं बन पाया हूँ। मेरी तपश्चर्या इतनी बलवान नहीं है। विकारोंको मैं वशमें रख सकता हूँ लेकिन मैं विकार-रहित नहीं हुआ हूँ। स्वादपर काबू पा सकता हूँ लेकिन जीभका स्वाद लेना बन्द नहीं हुआ है। जो विषयेन्द्रियोंको काबू में रखता है वह संयमी है। लेकिन जिसकी इन्द्रियाँ अभ्यासके द्वारा विषयोंका उपभोग करने में असमर्थ हो गई हैं वह तो संयमातीत है, वह मानो मोक्षकी दशामें अवतीर्ण हो गया है। स्वराज्यके लालचमें भी मोक्षके लिए प्रयत्न करना नहीं छोड़ेंगा लेकिन इससे यह तो नहीं कहा जा सकता कि मुझे मोक्ष मिला है? इसलिए मेरी भाषामें अवश्य तुम्हें त्रुटियाँ दिखाई देंगी। स्वराज्य प्राप्त करनेका प्रयास भी मेरे लिए मोक्ष प्राप्त करनेका ही प्रयास है। तुम्हें लिखता हूँ, यह भी इसीके अन्तर्गत आता है। यदि तुम्हें यह पत्र लिखनेका कार्य अपने मोक्षके प्रयत्नमें बाधा जान पड़े तो मेरी कलम इसी क्षण रुक जायेगी―ऐसी है मोक्षके प्रति मेरी लगन! ऐसा होनेपर भी मन तो मदिरापान किये हुए बन्दरके समान है, इसलिए उसको रोकनेके लिए खाली पुरुषार्थ ही काफी नहीं है। कर्म भी आड़े ही आते रहते होंगे।

जो वचन दे और उसका पालन न करे उसके साथ व्यवहार बन्द कर दें, इस न्यायका मैंने अपने “आशावाद” नामक लेखमें सुझाव दिया है। यह अनासक्तका लक्षण है। अगर मैं अगले वर्ष भी हिन्दके वातावरणको प्रतिकूल पाऊँ और तिसपर भी इसी बातको दोहराता जाऊँ तो यह बलात्कार करनेके समान होगा। उस हालतमें पहले मुझे इसके योग्य बनना चाहिए। इसीसे मौनको सर्वोत्तम भाषण माना गया है। मैं जो करूँगा वह मेरे लिए बिलकुल स्वाभाविक होगा, ऐसा मैं अवश्य मानता हूँ क्योंकि जिसे मैं सत्य मानूँगा, मैं वही कहूँगा और करूँगा।

  1. देखिए “आशावाद”, २३-१०-१९२१।