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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

मैं तो यह समझता था कि संघर्ष के इस अन्तिम चरणमें इस प्रश्नको हल करनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी। मुझे ताज्जुब तो इस बातका है कि कोई व्यक्ति ऐसे किसी पदपर कैसे रह सकता है जिसपर रहकर वह अपने धर्मका पालन न कर सके या अपने आत्म-सम्मानको कायम न रख सके। सैकड़ों क्लर्क जीवनदायी खादीको पहनने अथवा राष्ट्रीय कोषमें खुले आम चन्दा देने से रोके जाने के बावजूद अपनी नौकरियाँ छोड़ना असम्भव मानते हैं, इससे प्रकट होता है कि हम कितने नीचे गिर गये हैं। आत्म-सम्मानकी आरम्भिक बातें सीखने के लिए असहयोगके कठोर पाठकी आवश्यकता नहीं थी। लेकिन पिछले कुछ महीनोंसे असहयोगको बिलकुल यही काम करना पड़ रहा है। मैं प्रत्येक कर्मचारीसे विशाखापट्टमके मैडिकल कालेजके बहादुर विद्यार्थियोंके उदाहरणका अनुकरण करनेकी सिफारिश करता हूँ जिन्होंने अपने विद्यालयमें बने रहनेकी खातिर खादीकी पोशाकको नहीं छोड़ा।[१]

चिरला-पेरला

इन छोटे-छोटे स्थानोंके बहादुर लोग अब भी अपना संघर्ष जारी रखे हुए हैं।[२] उनके नेता श्री गोपालकृष्णय्या जेलमें हैं। लेकिन उन लोगोंने हिम्मत नहीं हारी है। वे अब भी अपने झोंपड़ोंमें मौजूद हैं। मेरे सामने एक पत्र रखा है, इसमें लेखकने लिखा है, “लोग डटे हुए हैं। उनके गाँवके कुछ अत्यन्त प्रमुख नेताओंपर नगरपालिकाके कर न देने के कारण हाल ही में मुकदमे चलाये गये हैं और वे लोग खुशी-खुशी जेल चले गये हैं। इससे उनका यह निश्चय और भी पक्का हो गया है कि वे वापस लौटकर गाँवमें नहीं जायेंगे। फिलहाल दोनों गाँव अपने इस निश्चयपर डटे हुए हैं कि तमाम हानियों, कठिनाइयों और कष्टोंके होते हुए भी अपनी बातपर कायम रहेंगे। कुछ ऐसे गरीब जरूर हैं जिनके झोंपड़े गिर चुके हैं और कुछ ऐसे हैं जिनको नये झोंपड़ोंकी जरूरत है।” इसी तरहके लोगोंकी शक्तिसे ही स्वराज्य स्थापित हो सकता है। नेताओंके न रहनेपर निराशाकी भावना नहीं आनी चाहिए और गोलियोंके सामने भी घुटने नहीं टेकने चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३-११-१९२१
 
  1. देखिए “टिप्पणियाँ”, १७-११-१९२१ का उप-शीर्षक ‘बहादुर विद्यार्थी’ और २४-११-१९२१ का उप-शीर्षक “चिकित्सा शास्त्रके छात्रों के बारे में कुछ और”।
  2. देखिए “चिरला-पेरला”, २५-८-१९२१।